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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-रहस्य
श्रीमद्भागवत पर, दशम स्कन्ध पर और रासपञ्चाध्यायी पर अब तक अनेकों भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं- जिनके लेखकों में जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य, श्रीश्रीधरस्वामी, श्रीजीव गोस्वामी आदि हैं। उन लोगों ने बड़े विस्तार से रासलीला की महिमा समझायी है। किसी ने इसे ‘काम पर विजय’ बतलाया है। किसी ने ‘भगवान का दिव्य विहार’ बतलाया है और किसी ने इसका आध्यात्मिक अर्थ किया है। भगवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धाराप्रवाहरूप से निरन्तर आत्मरमण ही रास है। किसी भी दृष्टि से देखें, रासलीला की महिमा अधिकाधिक प्रकट होती है। परन्तु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि श्रीमद्भागवत में वर्णित रास या रमण-प्रसंग केवल रूपक या कल्पना मात्र है। वह सर्वथा सत्य है और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादिरूप श्रृंगार का रसास्वादन भी हुआ था। भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषों का मिलन न था। उसके नायक थे सच्चिदानन्दविग्रह, परात्पर-तत्त्व, पूर्णतम स्वाधीन और निरंकुश स्वेच्छाविहारी गोपीनाथ भगवान नन्दनन्दन, एवं नायिका थी स्वं ह्लादिनीशक्ति श्रीराधा जी और उनकी कायव्यूहरूपा, उनकी घनीभूत मूर्तियाँ श्रीगोपीजन। अतएव इनकी यह लीला अप्राकृत थी। सर्वथा मीठी मिश्री की अत्यन्त कडुए इन्द्रायण (तूँबे)-जैसी कोई आकृति ना ली जाय, जो देखने में ठीक तूँबे-जैसी ही मालूम हो, परन्तु इससे असल में वह मिश्री का तूँबा कडुआ थोड़े ही हो जाता है? क्या तूँबे के आकार की होने से ही मिश्री के स्वाभाविक गुण मधुरता का अभाव हो जाता है? नहीं-नहीं, वह किसी भी आकार में हो-सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा केवल मिश्री-ही-मिश्री है। बल्कि इसमें लीला-चमत्कार की बात अवश्य है। लोग समझते हैं कडुआ तूँबा और होती है वह मधुर मिश्री। इसी प्रकार अखिलरसामृतसिन्धु सच्चिदानन्दघनविग्रह भगवान श्रीकृष्ण और उनकी अन्तरंगा अभिन्न-स्वरूपा गोपियों की लीला भी देखने में कैसी ही क्यों न हो, वस्तुतः वह सच्चिदानन्दमयी ही है। उसमें सांसारिक गंदे काम का कडुआ स्वाद है ही नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि इस लीला की नकल किसी को कभी नहीं करनी चाहिये, करना सम्भव भी नहीं है। मायिक पदार्थों के द्वारा मायातीत भगवान का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है? कडुए तूँबे को चाहे जैसी सुन्दर मिठाई की आकृति दे दी जाय, उसका कडुआपन कभी मिट नहीं सकता। इसीलिये जिन मोहग्रस्त मनुष्यों ने श्रीकृष्ण की रास आदि अन्तरंग-लीलाओं का अनुकरण करके नायक-नायिका का रसास्वादन करना चाहा या चाहते हैं, उनका घोर पतन हुआ है और होगा। श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। इसीलिये शुकदेवजी ने रासपञ्चाध्यायी के अन्त में सबको सावधान करते हुए कह दिया है कि भगवान के उपदेश तो सब मानने चाहिये, परन्तु उनके सभी आचरणों का अनुकरण कभी नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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