रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 117

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


‘स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः’[1]

तुम्हारा स्वागत है। यही शब्द यहाँ, यही शब्द वहाँ, दोनों जगह यही शब्द है। पहला आधा श्लोक एक साथ। आओ, तुम्हारा स्वागत है। कहो क्या करें? तुम्हारे लिये कोई सुख की चीज। कहा-महराज! कुछ नहीं बस आ गयी। भोजन जो लायी थीं वह तो खाना था ही। वो खा-पीकर बोले अच्छा अब लौट जाओ। अब देखिये यहाँ पर वचना-वो बोलीं कि श्रीकृष्ण! तुमने जाने की बात कही सो तो ठीक है और जाना हम चाहती भी हैं लेकिन हम वहाँ पर पतियों को, पुत्रों को त्याग करके उच्छृंखलता से उनकी बात न मान करके मनमाने तौर पर आ गयी हैं तो वे हमको घरों में रखें या न रखें। अगर न रखें हमको घरों में तो बताओ हम क्या करें? श्रीकृष्ण की योगमाया अर्थात अपने साथ मिलने देने में वंचना करने वाली। बस, यह हो गयी प्रकट और बोली-मैं तुम लोगों को वर दे रहा हूँ कि तुम लोग जाओ और तुम जब घर पहुँचोगी तो तुम्हारे पति-पुत्र सभी तुम लोगों का सत्कार करेंगे और बड़े आदर के साथ तुम्हें घरों में रखेंगे-

धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां व्रतं धिग् बहुज्ञताम्।
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ते त्वंधोक्षजे।।[2]

वे बेचारे ब्राह्मण रोये पीछे कि हाय-हाय हमसे बड़ी भूल हो गयी। हमारे कुल को धिक्कार, द्विज्जन्म होने को धिक्कार, हमारे कुल, क्रिया-दक्षता को धिक्कार। अरे, ये तो जा पहुँची उनके पास उनकी सेवा कर आयीं। हम वंचित रह गये। भगवान ने कहा तुम जाओ। तुम्हें खेदेड़ेगे नहीं। बड़े आदर से तुमको रख लेंगे। यज्ञ पत्नियाँ मान गयीं, लौट गयीं। फिर वे जरा भी बोली नहीं। इसलिये कृष्णसंग कृष्णसेवा का परित्याग हो गया उनका। यद्यपि गयीं थी कृष्ण का चिन्तन करते ही। पर लौट गयीं अपने घरों को।

कहते हैं कि इसी प्रकार योगमाया की महान वंचना में पड़कर के बड़े-बड़े लोग कोई मुक्ति को पाकर के सेवाधिकारी को छोड़ देते हैं और जो बहुत मन्द बुद्धिवाले लोग हैं वो तो विनाशी भोग के लिये ही सेवा छोड़ देते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि बहुत दिन श्रीकृष्ण की सेवा की, पूजा करते-करते आज उसका फल मिला है। अब पूजा पुजारी जी करेंगे। कुछ रुपये देकर के पुजारियों को रख लिया और अपने भगवान का दिया वैभव है उसे भोगना है। मन्दिर में पुजारी जी हैं ही अब हमको फुरसत नहीं। इस प्रकार से वो भुक्ति को लेकर के भोगों को लेकर के सेवाधिकार को छोड़ देते हैं; और कोई जो बड़े भारी साधन-सम्पन्न महापुरुष हैं वे मुक्ति को ले लेते हैं और सेवाधिकार को छोड़ देते हैं। कोई ऐसे भी होते हैं जो-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।29।18
  2. श्रीमद्भा. 10।23।29

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