(राग मालकोस-तीन ताल)हे प्यारी राधिके! तुम मेरे जीवन की मूल हो, मेरे प्राणों की अनुपम, अमर संजीवनी हो। तुम्हारे समान दूसरी कोई कहीं नहीं हैं ॥ 1॥ जैसे शरीर में अपनी-अपनी जगह सभी अंग शोभा देते हैं, परंतु प्राणों के बिना सभी व्यर्थ हैं, किसी में कहीं कोई शोभा नहीं रह जाती, उसी प्रकार हे प्यारी! सबके सुख की एकमात्र आधार तुम ही हो। तुम्हारे बिना जीवन में कोई रस नहीं रह जाता, जिस (जीवन)-को सब कोई प्यार करते हैं ॥ 2-3॥ मेरे प्राण तुम्हारे प्राणों से ही संचालित रहते हैं, तुम्हारे मन से ही मैं मनवान् बना हूँ-तुम्हारे मन से ही मेरे मन की सत्ता है। तुम्हारे प्रेम रूपी समुद्र की एक बूँद को ही लेकर मैं सबको रसदान करता हूँ ॥ 4॥ तुम्हारे पुण्यमय- पवित्र रस-भण्डार से ही सभी भिक्षुक चून- रसकण प्राप्त करते हैं, सबको रस वहीँ से मिलता है। तुम्हारे तो एकमात्र तुम्हीं हो, इसमें तुम तनिक भी कसर मत समझो ॥ 5॥ इस प्रकार मैं तुम्हारे ही रस-भण्डार में से रस-दान करता हूँ, परंतु उसमें बड़ी ही मर्यादा, बड़ा संयम, भय, दीनता और संकोच बना रहता है (मुक्तहस्त से- उदारतापूर्वक नहीं कर सकता) । तुम-जैसी संकोच छोड़कर रस बाँटने वाली उदार रस की स्वामिनी तो एक तुम ही हो, दूसरी कोई कहीं, कभी नहीं है ॥ 6॥ फिर मुझ पर तो तुम्हारा नित्य अनन्त स्वत्व है- कभी नहीं हटने वाला हक है (मैं तो सदा तुम्हारी ही सम्पत्ति हूँ) । अतएव मुझ पर सभी प्रकार से तुम्हारा पूरा अधिकार है। (इसी से मुझको निमित्त बनाकर) तुम अपनी कायव्यूहरूपा- अंगस्वरूपा गोपी जनों के द्वारा परम उदार होकर खुले हाथों रस का वितरण करवाती हो- रस बँटवाती रहती हो ॥ 7॥ मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारी रहस्यमयी, मेरे जीवन को सदा मुग्ध रखने वाली मीठी माया के- रसमयी प्रीति के वशीभूत रहकर मैं तुम्हारे दक्षिण और वाम दोनों प्रकार के भावों के रसास्वादन में निमित्त बनता रहूँ ॥ 8॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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