महाभाव-रसराज-वन्दनाश्रीराधा-माधव दोनों एक-दूसरे के लिए चकोर भी हैं और चन्द्रमा भी, भ्रमर भी हैं और कमल भी, पपीहा भी हैं और मेघ भी एवं मछली भी हैं और जल भी ॥ 1॥ प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे के प्रेमी भी हैं और प्रेमास्पद भी। प्रेमी को कहते हैं- ‘आश्रयालम्बन’ और प्रेमास्पद को ‘विषयालम्बन’। कहीं श्यामसुन्दर प्रेमी बनते हैं तो राधाकिशोरी प्रेमास्पद हो जाती हैं और जहाँ राधाकिशोरी प्रेमिका का बाना धारण करती हैं वहाँ श्यामसुन्दर प्रेमास्पद हो जाते हैं। प्रेम का स्वरुप ही है प्रेमास्पद के सुख में सुख मानना। इसी से प्रेमी को ‘तत्सुख-सुखिया’ कहते हैं। श्रीराधाकिशोरी और उनके प्राण-प्रियतम श्रीकृष्ण दोनों ही तत्सुख-सुखी हैं। श्रीराधा को सुखी देखकर श्यामसुन्दर को सुख होता है और श्यामसुन्दर को सुखी देखकर श्रीराधा सुखी होती हैं ॥ 2॥ प्रेम की अन्तिम परिणतिका नाम है ‘महाभाव’। महाभाव के मूर्तिमान् विग्रह हैं श्रीराधा। इसी प्रकार रसों में सर्वश्रेष्ठ रस है उज्ज्वल अथवा श्रृंगार रस। इसके मूर्तिमान् स्वरुप हैं श्रीकृष्ण। इस प्रकार श्रीराधा और श्रीकृष्ण के रूप में साक्षात् महाभाव-रसराज ही परस्पर लीलारस का आस्वादन करते रहते हैं और नाना प्रकार के नित्य नूतन साज-वेश सजाकर एक-दूसरे को रस का वितरण किया करते हैं ॥ 3॥ प्रिया-प्रियतम दोनों ही एक ही काल में परस्पर विरोधी, अनन्त, नित्य, मन-वाणी के अगोचर (वाणी से जिनका वर्णन नहीं हो सकता और चित्त से जिनका चिन्तन नहीं हो सकता), अत्यन्त शोभामय एवं दिव्य ऐश्वर्ययुक्त गुणों से विभूषित रहते हैं ॥ 4॥ ये तत्वत-स्वरूपतः एक होते हुए दो भिन्न स्वरूपों को धारण किये हुए हैं। नित्य रस के समुद्र उन श्रीराधा-माधव के चरणों की मैं बारम्बार वन्दना करता हूँ ॥ 5॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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