रघुनाथदास चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख भक्तों में से एक थे। पुरी की यात्रा के दौरान इनके मन में श्री चैतन्यदेव के दर्शन कि इच्छा हुई। भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद रघुनाथदास श्रीचरणों की ओर अग्रसर हुए। इनके हृदय में न जाने क्या-क्या तरंगें उठ रही थीं। इसी प्रकार भावुकता के प्रवाह में अलौकिक आनन्द लाभ करते हुए ये निश्चित स्थान के निकट जा पहुँचे। दूर से ही इन्होंने देखा कि भक्त जनों से घिरे हुए श्री चैतन्यदेव प्रमुख आसन पर विराजमान हैं। उस अलौकिक शोभा से युक्त मूर्ति का दर्शन करते ही रघुनाथ का रोम-रोम खिल उठा। हर्षातिरेक से उन्हें तन-वदन की भी सुधि न रही। रघुनाथदास श्री चरणों के निकट पहुँच गये। सबसे पहले मुकुन्द दत्त की निगाह उन पर पड़ी। देखते ही उन्होंने कहा- "अच्छा, रघुनाथदास, आ गये?" तुरंत ही गौर का भी ध्यान गया। वे प्रसन्नता से खिल उठे। ‘अच्छा, वत्स रघुनाथ! आ गये?' कहकर उनका स्वागत किया और उनके प्रणाम करने के बाद झट से अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर गले लगाया। पास बैठाकर उनके सिर पर हाथ फेरना शुरु किया। रघुनाथ को ऐसा मालूम पड़ा मानो उनकी रास्ते की सारी थकावट हवा हो गयी। महाप्रभु की करुणा-शीलता देखकर उनकी आँखों से श्रद्धा और प्रेम के आँसू बरस पड़े। उन्हें भी गौर ने निज करकमलों से ही पोंछा।[1]
महाप्रभु का उपदेश
इसके अनन्तर चैतन्यदेव ने स्वरूपदामोदर को अपने पास बुलाकर कहा कि ‘देखो, मैं इस रघुनाथ को तुम्हें सौंपता हूँ। खान-पान से लेकर साधन-भजन तक सारी व्यवस्था का भार तुम्हारे ऊपर है, भला!’ बहुत अच्छा ! कहकर स्वरूप ने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और रघुनाथ को अपनी कुटी में ले गये। उनके समुद्र-स्नान करके वापस आने पर उन्हें जगन्नाथ जी का कई प्रकार का प्रसाद और महाप्रसाद लाकर दिया। रघुनाथ ने उसे बड़े प्रेम से पाया। परंतु जब उन्होंने देखा कि यह तो रोज का सिलसिला है, तब उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि रोज-रोज यह बढ़िया-बढ़िया माल खाने से वैराग्य कैसे सधेगा। आखिर चार-पाँच दिन के बाद ही उन्होंने यह व्यवस्था बदल दी। ‘मैं एक राजकुमार की हैसियत का आदमी हूँ’ इस प्रकार का रहा-सहा भाव भी भुलाकर वह साधारण भिक्षुक की भाँति जगन्नाथ जी के सिंह द्वार पर खड़े होकर भिक्षावृत्ति करने लगे और बड़े आनन्द के साथ दिन व्यतीत करने लगे। जब लोगों को मालूम हुआ कि ये बहुत बड़े घर के लड़के होकर भी इस अवस्था में आ गये हैं, तब उन्हें अधिकाधिक परिमाण में विविध प्रकार के पदार्थ देना आरम्भ कर दिया। आखिर घबराकर रघुनाथदास को यह क्रम भी त्याग देना पड़ा। अब वह चुपचाप एक अन्नक्षेत्र में जाते और वहाँ से रूखी-सूखी भीख ले आते। रघुनाथ की गतिविधि क्या-से-क्या हो रही है, श्री गौरांगदेव को पूरा पता लगता रहता। उनके दिन-दिन बढ़ते हुए वैराग्य को देखकर उन्हें बड़ा सुख मिलता। रघुनाथ की उत्कट जिज्ञासा देखकर महाप्रभु ने एक दिन उन्हें साधन सम्बन्धी कुछ उपदेश दिया। कहा कि मैं तुम्हें सब शास्त्रों का सार यह बतलाता हूँ कि ‘श्रीकृष्ण के नाम का स्मरण और कीर्तन ही संसार में कल्याण-प्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पर इस साधन की भी पात्रता प्राप्त करने के साधन ये हैं कि निरन्तर साधुसंग करे, सांसारिक चर्चा से बचे, पर निन्दा से कोसों दूर रहे, स्वयं अमानी होकर दूसरों का मान करे, किसी का दिल न दुखाये और दूसरे के दुखाने पर दु:खी न हो, आत्म प्रतिष्ठा को विष्ठावत समझे, सरल और सच्चरित्र होकर जीवन व्यतीत करे, आदि।'
महाप्रभु की लीला
रघुनाथदास इच्छा और अनिच्छा से जब तक राजकुमार थे, तब तक थे; अब वह वैरागी बन गये हैं, इसलिये उनका वैराग्य भी दिन-दिन बड़े वेग से बढ़ता जाता है। पहले वे अन्न क्षेत्र में जाकर भिक्षा ले आते थे; पर अब उन्होंने यह भी बंद कर दिया। कारण, भण्डारी को जैसे ही इनके वंश आदि का परिचय मिला, उसने भिक्षा में विशेषता कर दी। इसलिये इन्हें इस व्यवस्था को भी त्यागकर नयी व्यवस्था करनी पड़ी। इसमें पूर्ण स्वाधीनता थी। जगन्नाथ जी में दुकानों पर भगवान का प्रसाद भात-दाल आदि बिकता है। यह प्रसाद बिकने से बचते-बचते कई-कई दिन का हो जाने से सड़ भी जाता है। सड़ जाने से जब यह बिक्री के काम का भी नहीं रहता, तब सड़क पर फेंक दिया जाता है, जिसे गौएँ आकर खा जाती हैं। रघुनाथदास को इस जीविका में निर्द्वन्द्वता मालूम हुई। वे उसी फेंके हुए प्रसाद में से थोड़ा-सा बटोरकर ले आते और उसमें बहुत-सा जल डालकर उसे धोते और उसमें से कुछ साफ-से खाने लायक चावल निकाल लेते और नमक मिलाकर उसी से अपने पेट की ज्वाला शान्त करते। गौरांगदेव को इनकी इस प्रसादी का पता लगा तो वे एक दिन सायंकाल दबे पाँव रघुनाथ के पास पहुँचे। ज्यों ही उन्होंने देखा कि रघुनाथ प्रसाद पा रहे हैं तो जरा और भी दुबक गये और इसी तरह खड़े रहे; एकाएक बंदर की तरह झपटकर छापा मारा। झट से एक मुट्ठी भर के ‘वाह बच्चू! मेरा निमंत्रण बन्द करके अब अकेले-ही-अकेले यह सब माल उड़ाया करते हो?’ कहते हुए मुख में पहुँचाया। ध्यान जाते ही ‘वाह प्रभो ! यह क्या? इस पाप से मेरा निस्तार कैसे होगा!' कहकर झट से रघुनाथ ने दोनों हाथों से पतली उठा ली, जिससे महाप्रभु पुन: ऐसा न कर सकें। लज्जा और संकोच से उनका चेहरा मुर्झा गया और नेत्रों में जल-बिन्दु छलक आये। महाप्रभु मुँह में दिये हुए कौर को मुराते-मुराते रघुनाथ की और करुणाभरी दृष्टि से निहारते पुन: हाथ मारने को लपके और रघुनाथ ‘हे प्रभो! अब तो क्षमा कीजिये’ कहते हुए पतली लेकर भागे। तब तक यह सब हल्ला–गुल्ला सुनकर स्वरूप गोस्वामी भी आ पहुँचे और यह देखकर कि श्री गौर जबरदस्ती रघुनाथ का उच्छिष्ट खाने का प्रयत्न कर रहे हैं, उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना की- ‘प्रभो ! दया करके यह सब मत कीजिये, इसमें दूसरे का जन्म-कर्म बिगड़ता है।'
चैतन्यदेव ने मुख में दिये हुए ग्रास को चबाते-चबाते ही कहा- ‘स्वरूप ! तुमसे सच कहता हूँ, ऐसा सुस्वादु अन्न मैंने आज तक नहीं पाया।'
इसी प्रकार श्री गौरांगदेव की कृपा दृष्टि से प्रोत्साहित होते रहकर रघुनाथ ने वहीं पुरी में रहकर सोलह वर्ष व्यतीत कर दिये। श्री चैतन्य जब अहर्निश प्रेमोन्माद में रहने लगे, तब उनकी देह रक्षा के लिये वे सदा उनके साथ ही रहने लगे। वे उनकी बड़ी श्रद्धा के साथ सेवा करते और उनके मुख से निकले हुए वचनामृत का पान करते। आगे चलकर श्री गौर का तिरोभाव हो गया, जिससे रघुनाथ के शोक का पार न रहा और प्रभु के बाद जब श्री स्वरूप भी विदा हो गये, तब तो उनका पुरीवास ही छूट गया। वे वृन्दावन चले गये; इसके बाद वे वृन्दावन में श्री राधाकुण्ड के किनारे डेरा डालकर कठोर साधन में लग गये। वे केवल छाछ पीकर जीवन-यापन करते। रात को सिर्फ घंटे-डेढ़ घंटे सोते शेष सारा समय भजन में व्यतीत करते। प्रतिदिन एक लाख नाम-जप का उनका नियम था। श्री चैतन्य चरितामृत कार का कहना है कि रघुनाथदास के गुण अनन्त थे, जिनका हिसाब कोई नहीं लगा सकता। उनके नियम क्या थे, पत्थर की लीक थे। चार ही घड़ी में उनका खाना, पीना, सोना आदि सब कुछ हो जाता था- शेष सारा समय साधना में व्यतीत होता था। वैराग्य की तो वे मूर्ति ही थे। वस्त्र भी फटे-पुराने केवल लज्जा और शीत से रक्षा करने के लिये रखते थे। प्रभु की आज्ञा को ही भगवदाज्ञा समझकर चलते थे।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 573
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