नरहरिदेव

नरहरिदेव
नरहरिदेव
पूरा नाम नरहरिदेव
जन्म संवत 1640 विक्रमी (1583 ई.)
जन्म भूमि गूढ़ो ग्राम, बुन्‍देलखण्‍ड
मृत्यु संवत 1741 विक्रमी (1684 ई.)
मृत्यु स्थान वृन्दावन, मथुरा
अभिभावक पिता- विष्‍णुदास, माता- उत्तमा।
कर्म भूमि ब्रज
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि रसिक संत
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख श्रीराधा, श्रीकृष्ण, वृन्दावन, मथुरा
गुरु महात्‍मा सरसदेव
अन्य जानकारी नरहरिदेव नित्‍य भगवान के चरित्रों और लीलाओं पर पद बना-बनाकर गाया करते थे। उनकी भक्ति में ही रात-दिन तल्‍लीन रहते थे। यद्यपि उनका जीवन बुन्‍देलखण्‍ड में सुचारु रूप से बीत रहा था, तो भी वृन्दावन की निकुंज-माधुरी ने उनका मन संपूर्ण रूप से आकृष्‍ट कर लिया।

नरहरिदेव भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उनका रूप अत्‍यन्‍त आकर्षक और मनमोहक था। वे नित्‍य भगवान के चरित्रों और लीलाओं पर पद बना-बनाकर गाया करते थे। उनकी भक्ति में ही रात-दिन तल्‍लीन रहते थे। वे अपने गुरु सरसदेव के विशेष कृपापात्रों में से थे।

परिचय

नरहरिदेव का जन्‍म बुन्‍देलखण्‍ड के गूढ़ो नामक गांव में संवत 1640 विक्रमी (1583 ई.) में हुआ था। उनके पिता का नाम विष्‍णुदास और माता का उत्तमा था। उनके जीवन में बचपन से ही भगवान की कृपा से कुछ अलौकिक और परहितकारी सिद्धियां थीं। उनका रूप अत्‍यन्‍त आकर्षक और मनमोहक था। गांव वाले उनको अपने बच्‍चे की ही तरह प्‍यार करते थे। बाल्‍यावस्‍था से ही उनकी सिद्धि और ईश्‍वर-भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी थी। लोग सुदूर देशों से उनके दर्शन के लिये आने लगे थे।

चमत्कारिक प्रसंग

जब नरहरिदेव छोटे-से बालक ही थे, तभी उन्‍होंने एक बनिये को भयंकर कुष्‍ठ रोग से मुक्‍त किया था। वह बड़ा सम्‍पन्‍न और कुलीन व्‍यक्ति था, पर कुष्‍ठ के कारण लोग उससे घृणा करते थे। उसे अपना जीवन भारस्‍वरूप प्रतीत होने लगा था। वह जगन्‍नाथपुरी गया। भगवान के सामने उसने दृढ़ संकल्‍प किया- "यदि मेरा रोग अच्‍छा नहीं होगा तो मैं प्राण दे दूंगा।" भगवान ने रात में उसे स्‍वप्‍न दिया- "गूढ़ो गांव में मेरे भक्त नरहरि हैं। मेरे और मेरे भक्‍तों के स्‍वरूप में तनिक भी विभिन्‍नता नहीं है। तुम उनके चरणामृत पान से कुष्‍ठ रोग से मुक्‍त हो सकोगे।" बनिया प्रभु की प्रसन्‍नता और कृपा का संबल लेकर गूढ़ो ग्राम जा पहुँचा। लोग उसके मुख से स्‍वप्‍न में भगवान का साक्षात्‍कार और नरहरिदेव की सिद्धि की बात सुनकर हंस पड़े। उन्‍हें विश्‍वास ही न हुआ, पर बनिया तो भगवान और उनके भक्त की कृपा का अधिकार पत्र पा चुका था। उसने श्रद्धापूर्वक भगवान का स्‍मरण किया और नरहरिदेव के चरणामृत से अपने अधरों की प्‍यास बुझायी। कुष्‍ठ रोग से उसे मुक्ति मिल गयी। लोग नरहरिदेव में श्रद्धा और भक्ति करने लगे। उनकी प्रसिद्धि दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ने लगी।

वृन्दावन आगमन

नरहरिदेव नित्‍य भगवान के चरित्रों और लीलाओं पर पद बना-बनाकर गाया करते थे। उनकी भक्ति में ही रात-दिन तल्‍लीन रहते थे। यद्यपि उनका जीवन गूढ़ो में सुचारु रूप से बीत रहा था, तो भी वृन्दावन की निकुंज-माधुरी ने उनका मन संपूर्ण रूप से आकृष्‍ट कर लिया। वे ब्रज के लिये चल पड़े। यमुना के श्‍याम जल की लहरियों ने उनकी भावनाओं में भगवान श्रीकृष्ण की श्‍यामता एवं श्रृंगार-माधुरी भर दी। उन्‍होंने बालुका-कण मस्‍तक पर चढ़ा लिये। वे प्रेमोन्‍मत्‍त हो उठे। वे सोचने लगे, कितनी पवित्र है यह भूमि। अरे, वंशीवट का सौभाग्‍य तो निराला ही है। श्रीकृष्ण वहीं रात-दिन रास किया करते हैं। सामने रेती की रजत-चन्द्रिका में ही तो श्रीचैतन्य आदि ने भगवान की दिव्‍य लीला का दर्शन किया था। वे आत्‍ममुग्‍ध थे। उन्‍होंने वृन्‍दावन के मन्दिरों पर भगवान के यश को दिग्दिगन्‍त में फैलाने वाली गगनस्‍पर्शी पताकाओं को नमस्‍कार किया। वे भगवान की दिव्‍य छवि की झांकी के लिये लालायित हो उठे। वृन्‍दावन के कण-कण में उन्‍हें उनके रम्‍यरूप का दर्शन होने लगा। उनके अधरों ने रसमयी स्‍वरलहरी में भगवान का प्रेमामृत उड़ेवल दिया। रसिक नरहरिदास गाने लगे-

जाकौं मनमोहन दृष्टि परे।
सो तौ भयौ सावन कौ आंधरौ सूझत रंग हरे।।
जड़ चैतन्‍य कछू नहिं समझत, जित देखै तित स्‍याम खरे।
बिह्वल बिकल सम्‍हार न तन की, घूमत नैना रूप भरे।।
करनी अकरनी दोउ बिधि भूली, बिधि निषेध सब रहे धरे।
‘नरहरिदास’ जे भए बावरे, ते प्रेम प्रबाह परे।।

गुरु के कृपापात्र

नरहरिदेव गाते-गाते मूर्च्छित हो गये। एक बुढ़िया ने उनका हाथ पकड़ लिया। थोड़े समय के बाद उनको चेत हुआ। बुढ़िया के मुख से महात्‍मा सरसदेव की बात सुनकर वे आनन्‍दमग्‍न हो गये। पूर्व संस्‍कार जाग उठे। उन्‍हें ऐसा लगा कि कोई अदृश्‍य शक्ति उनके पास जाने के लिये उन्‍हें प्रेरित कर रही है। उन्‍होंने महात्‍मा सरसदेव का दर्शन किया। गुरुदेव ने उन्‍हें श्रीराधा-कृष्ण की रूप-माधुरी का पूरा-पूरा ज्ञान कराया। वे स्‍वयं एक उच्‍च कोटि के रसोपासक संत थे। इस समय नरहरिदेव की अवस्‍था केवल पैंतीस साल की थी। वे सरसदेव के विशेष कृपापात्रों में से एक थे।

निकुंजलीला में लीन

संवत 1741 विक्रमी (1684 ई.) में नरहरिदेव नित्‍य निकुंजलीला में लीन हो गये।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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