परमेष्ठी दर्जी

परमेष्ठी दर्जी
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पूरा नाम परमेष्ठी दर्जी
पति/पत्नी विमला
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र दिल्ली
प्रसिद्धि भक्त
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख श्रीकृष्ण, जगन्नाथ रथयात्रा, जगन्‍नाथपुरी
अन्य जानकारी परमेष्‍ठी दर्जी भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। भक्त होने के साथ परमेष्‍ठी अपने काम में भी पूरा निपुण था। सिलाई के बारीक काम के लिये उसकी ख्‍याति थी। बड़े-बड़े अमीर, नवाब आदि उसी से अपने वस्‍त्र सिलवाते थे।

परमेष्‍ठी दिल्ली में एक दर्जी था। उसकी निपुणता पूरे नगर में प्रसिद्ध थी। वह भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। भक्त होने के साथ परमेष्‍ठी अपने काम में भी पूरा निपुण था। सिलाई के बारीक काम के लिये उसकी ख्‍याति थी। बड़े-बड़े अमीर, नवाब आदि उसी से अपने वस्‍त्र सिलवाते थे।

नीलाचल के नाथ के गह दृढ़ चरन गवाँर।
जगन्‍नाथ बिनु को जगत जन मन राखनहार।।

परिचय

आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व दिल्‍ली में परमेष्‍ठी नाम का काले रंग का एक कुबड़ा दर्जी रहता था। शरीर से कुरूप होने पर भी वह हृदय से भगवान का भक्त था। शूद्र होने पर भी जितेन्द्रिय था। दरिद्र होने पर भी उदार था। श्रमजीवी होने पर भी आनन्‍दजीवी था। परमेष्‍ठी की स्‍त्री का नाम था विमला। वह धर्म परायणा तथा पति की इच्‍छा के अनुसार चलने वाली थी। उसके एक पुत्र और दो कन्‍याएँ थीं। सन्‍तानों में भी माता-पिता के गुण पूरे उतरे थे। वे विनम्र और आज्ञाकारी थे। परमेष्‍ठी का पारिवारिक जीवन सुख-शान्तिपूर्ण था।[1]

यद्यपि परमेष्‍ठी को सब सांसारिक सुख प्राप्‍त थे, फिर भी उसका मन इन भोगों में तनिक भी आसक्त नहीं था। उसे स्‍त्री-पुत्रादि का कोई मोह नहीं था। भगवान, भगवान के भक्त और भगवन्‍नाम में उसकी अपार प्रीति थी। कपड़ा सीते-सीते वह नाम-जप किया करता था। कभी-कभी तो भगवान का स्‍मरण करते हुए वह मूर्ति की भाँति हाथ में कपड़ा और सुई लिये बैठा ही रह जाता था। समय मिलते ही वह कीर्तन करने लगता था।

उस समय उसके नेत्रों से आँसू चलने लगते थे, कण्‍ठ भर जाता था, शरीर सात्त्विक भावों से परिपूर्ण हो जाता था। लोग उसे भगवद्भक्त की प्रशंसा करते तथा उसका आदर करते थे।

भक्त होने के साथ परमेष्‍ठी अपने काम में भी पूरा निपुण था। सिलाई के बारीक काम के लिये उसकी ख्‍याति थी। बड़े-बड़े अमीर, नवाब आदि उसी से अपने वस्‍त्र सिलवाते थे। बादशाह को भी उसी के द्वारा सिले वस्‍त्र पसंद आते थे।

सच्चाई और कारीगरी

एक बार बादशाह के सिंहासन के नीचे दो बढ़िया गलीचे उनके पैर रखने के लिये बिछाये गये। बादशाह को वे गलीचे पसंद नहीं आये। उन्‍होंने दो तकिये बनवाने का विचार किया। बहुमूल्‍य मखमल मँगाकर उस पर सोने के तारों के सहारे हीरे, माणिक, मोती जड़वाये गये। जड़ाऊ काम बादशाह को पसंद आया। परमेष्‍ठी को बुलवाकर बादशाह ने वह कपड़ा उन्‍हें दिया और उसके दो तकिये बनाने का आदेश दिया। परमेष्‍ठी की सच्चाई और कारीगरी पर बादशाह को पूरा विश्‍वास था। परमेष्‍ठी वह रत्‍न जटित वस्‍त्र लेकर घर आ गये।

घर आकर परमेष्‍ठी ने उस वस्‍त्र के दो खोल बनाये। दोनों में इत्र से सुगन्धित रूई भरी। तकियों के ऊपर रत्‍नों के बने फूल-पत्ते जगमग करने लगे। इत्र की सुगन्‍ध से घर भर गया। ऐसे तकिये भला दर्जी अपने घर में कैसे रखे। वह उन्‍हें बादशाह के यहाँ ले जाने को उठ खड़ा हुआ।

तकियों को उठाकर हाथ में लेते ही परमेष्‍ठी ने ध्‍यान से रत्‍नों की छटा देखी। उनके मन ने कहा- "कितने सुन्‍दर हैं ये तकिये। ये क्‍या एक सामान्‍य मनुष्‍य के योग्‍य हैं? इनके अधिकारी तो भगवान वासुदेव ही हैं।" जैसे-जैसे इत्र की सुगन्‍ध नाक में पहुँचने लगे, वैसे-वैसे यह विचार और दृढ़ होने लगा। मन में द्वन्‍द्व चलने लगा- "वह कारीगरी किस काम की, जो भगवान की सेवा में न लगे। परंतु मैं क्‍या करूँ? तकिये तो बादशाह के हैं।"

रथयात्रा महोत्‍सव और तकिए का अर्पण

मन के असमंजस ने ऐसा रूप लिया कि परमेष्‍ठी को पता ही नहीं चला कि वह कहाँ है, क्‍या कर रहा है। उस दिन श्री जगन्‍नाथपुरी में रथयात्रा का महोत्‍सव था। परमेष्‍ठी एक बार श्री जगन्‍नाथ धाम जाकर रथयात्रा का महोत्‍सव देख आया था। आज भावा वेश में जैसे रथयात्रा का वह प्रत्‍यक्ष दर्शन करने लगा। परमेष्‍ठी देख रहा है- श्री जगन्‍नाथ जी रथ पर विराजमान हैं। सहस्‍त्रों नर-नारी रस्‍सी पकड़कर रथ को खींच रहे हैं। कई पीछे से ठेल रहे हैं। कीर्तन हो रहा है, जय-जयकार गूँज रहा है, वेदपाठ हो रहा है। सेवकगण एक के बाद एक वस्‍त्र बिछाते जा रहे हैं। श्री जगन्‍नाथ जी एक वस्‍त्र से दूसरे पर पधारते हैं। सहसा रथ के कठिन आघात से जगन्‍नाथ जी के नीचे बिछाया हुआ वस्‍त्र फट गया। सेवक मन्दिर में दूसरा वस्‍त्र लेने दौड़े, पर उन्‍हें देर होने लगी। परमेष्‍ठी से यह दृश्‍य देखा नहीं गया। उन्‍होंने शीघ्रता से दो तकियों में से एक जगन्‍नाथ जी को अर्पण कर दिया। प्रभु ने उसे स्‍वीकार कर लिया। परमेष्‍ठी के आनन्‍द का पार नहीं रहा। वह आनन्‍द के मारे दोनों हाथ उठाकर नाचने लगा। बड़ी भीड़ थी। बड़ी धक्‍का-मुक्‍की थी। परमेष्‍ठी भीड़ में पीछे पड़ गया। अब आगे बढ़ पाना संभव नहीं था। श्री हरि का दर्शन नहीं हो रहा था अब। सहसा इस स्थिति से परमेष्‍ठी को बाह्यज्ञान हो गया।

परमेष्‍ठी ने स्‍वप्‍न नहीं देखा था। सचमुच रथयात्रा में भगवान जगन्‍नाथ स्‍वामी के नीचे का एक वस्‍त्र फट गया था और पुजारियों ने देखा कि किसी भक्त ने रथ पर एक बहुमूल्‍य रत्‍न जटित तकिया प्रभु को चढ़ा दिया है। यहाँ होश में आकर परमेष्‍ठी ने देखा कि एक तकिया गायब है। उसे बड़ा आनन्‍द हुआ। सर्वान्‍तर्यामी प्रभु ने उसके हृदय की बात जानकर एक तकिया स्‍वीकार कर लिया। अब उसे किसी का क्‍या भय। क्षुद्र बादशाह उसके प्राण ही तो ले सकता है। वह कहाँ मृत्‍यु से डरता है। उसके दयामय प्रभु ने उस पर इतनी कृपा की। वह तो आनन्‍द के मारे कीर्तन करता हुआ नाचने लगा।

परमेष्‍ठी कारागार में और प्रभु के दर्शन

बादशाह के सिपाही उसे बुलाने आये। एक तकिया लेकर वह बादशाह के पास पहुँचा। बादशाह तकिये की कारीगरी देखकर संतुष्‍ट हुआ। उसने दूसरे तकिये की बात पूछी। परमेष्‍ठी ने निर्भयतापूर्वक कहा- "उसे तो नीलाचलनाथ श्री जगन्‍नाथ स्‍वामी ने स्‍वीकार कर लिया।" पहले तो बादशाह ने परिहास समझा। वह बार-बार पूछने लगा। जब दर्जी ने यही बात अनेक बार दुहरायी, तब बादशाह को क्रोध आ गया। उन्‍होंने परमेष्‍ठी को कारागार में डालने का आदेश दे दिया। भक्त परमेष्‍ठी कैदखाने में बंद कर दिये गये।

हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े परमेष्‍ठी कारागार की अँधेरी कोठरी में पड़े-पड़े प्रभु का स्‍मरण कर रहे थे। वहाँ अँधेरे में कब दिन गया और रात आयी, उन्‍हें पता ही नहीं। सहसा हथकड़ी टूट गयी, तड़ाक-तड़ाक करके बेड़ियों के टुकड़े उड़ गये। भड़-भड़ाकर बंदीगृह की कोठरी का द्वार खुल गया। परमेष्‍ठी के सामने एक अपूर्व ज्‍योति प्रकट हुई। दूसरे ही क्षण शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी प्रभु ने उन्‍हें दर्शन दिया। परमेष्‍ठी आनन्‍दमग्‍न होकर प्रभु के चरणों में लोटने लगे। प्रभु ने कहा- "परमेष्‍ठी ! मेरे भक्त से अधिक बलवान संसार में और कोई नहीं है। जब तक मेरे हाथ में मेरा यह चक्र है, किसका साहस है जो मेरे भक्त को कष्‍ट दे। आ बेटा ! मेरे पास आ|"

परमेष्‍ठी तो कृतार्थ हो गये। प्रभु ने अपने चरणों पर गिरते हुए उन्‍हें उठाया। उनके मस्‍तक पर अपना अभय कर रखा। उन्‍हें मुक्त करके वे जगन्निवास अन्‍तर्हित हो गये।

बादशाह का स्‍वप्‍न

उधर बादशाह ने स्‍वप्‍न में एक बड़ा भयंकर पुरुष देखा। जैसे साक्षात महाकाल अपना कठोर दण्‍ड उठाकर उसे पीट रहे हों और गर्जन करते कहते हों- "तू भक्त परमेष्‍ठी को कैद करेगा? तू?" बादशाह डर के मारे चीखकर जग गया। वह थर-थर काँप रहा था। उसका अंग-अंग दर्द कर रहा था। शरीर पर प्रहार के स्‍पष्‍ट चिह्न थे। सबेरा होते ही मंत्रियों से उसने स्‍वप्‍न की बात कही। सब को लेकर वह कैदखाने गया। वहाँ पहरेदार सोये पड़े थे। परमेष्‍ठी की हथकड़ी-बेड़ी टूटी हुई थी। उनकी कोठरी खुली थी। उनके शरीर से दिव्‍य तेज निकल रहा था। वे ध्‍यान में मग्‍न थे। ध्‍यान टूटने पर व्‍याकुल-से होकर वे नाम कीर्तन करते हुए रोने लगे। बादशाह को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। उसने परमेष्‍ठी से हाथ जोड़कर क्षमा माँगी। नाना प्रकार के वस्‍त्रा भरणों से सज्जित करके हाथी पर बैठाकर गाजे-बाजे के साथ उन्‍हें शहर ले आया। बहुत-सा धन दिया उसने। चारों ओर भक्त परमेष्‍ठी का जय-जयकार होने लगा।

परमेष्‍ठी जी को यह मान-प्रतिष्‍ठा बिलकुल नहीं रुची। उन्‍हें इससे बड़ी लज्‍जा हुई। प्रतिष्‍ठा से बचने के लिये दिल्‍ली छोड़कर वे दूसरे देश चले गये और वहीं लोगों की दृष्टि से दूर रहकर पूरा जीवन उन्‍होंने भगवान के भजन-पूजन में व्‍यतीत किया।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 673

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