मीराँबाई की पदावली पृ. 28

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काव्यत्व

विरहावस्था में ‘वादर’ या तो ‘मतवारो’ बन कर आता है और ‘हरि को सनेसों’ तक नहीं लाता या ‘काली पीली’ घटायें उमड़ पड़ती हैं और सर्वत्र ‘पानी ही पानी’ दीखने लगता है, उस समय सभी वस्तुएँ विरहिणी के लिए भयंकर व डरावनी बन जाती हैं। परन्तु प्रतीक्षा की दशा मे वही ‘घन’ गरजने के साथ साथ ‘लरजने’ भी लगता है, बिजली सवाई चमक के साथ ‘लाज’ छोड़कर सामने आती है, ‘पुरवाई’ पवन चलने लगता है और धरती नये-नये रूप धारण करने लगती है, सब कहीं उत्साह व चंचलता हे और मीराँ का चित्त भी ‘चरण कमलों’ में लीन होता जा रहा है।

इसी भाँति मिलन की अवस्था में वही ‘बदला’ जल भर-भर आते हुए दीखते हैं, ‘नन्हीं-नन्हीं’ वा ‘छोटी-छोटी’ बूँदी में ‘मेहा’ बरसने लगता है और पवन ‘सीतल’ व ‘सोहावन’ बन जाता है, बारह मासे का वर्णन भी मीराँबाई के हृदय की कहानी ही प्रकट करता हुआ जान पड़ता है। होली के वर्णनों में उनकी तन्मयता के भाव बहुत स्पष्ट हैं।

घटना वर्णन

घटनात्मक वर्णनों में मीराँबाई की पदावली के अन्तर्गत, बाललीला[1], वंसीवादन लीला[2], नागलीला[3], चीरहरण लीला[4], मिलनलीला[5], पनघटलीला[6], फागलीला[7] वा दधिबेचन लीला[8], के प्रसंग आते हैं और कुछ पदों[9] में अक्रूर तथा अन्य[10] में उद्धव सम्बन्धी कथाओं के भी उल्लेख हैं। इनमें से पद[11] में क्रमशः बालक्रीड़ा, गार्हस्थ्य जीवन, करुण दशा, अनोखे प्रभाव, होली रंग तल्लीनता एवं पछताने के भाव विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।[12] में दधि बेचने वाली ग्वालिन की आत्मविस्मृति तो एक दम अनूठी है। इनके अतिरिक्त मीराँबाई के दो पदों[13] में पौराणिक भक्त गाथाओं के अनुसार किए गये, क्रमशः शबरी एवं सुदामा की कथाओं के दो इतिवृत्तात्मक वर्णन भी आये हैं जिनमें से दूसरे में, कम से कम, ‘फाटी तो फूलडि़याँ पाँव उभाणे, चतलैं चरण घसैं’ द्वारा बालपने के ‘मित’ वा मित्र सुदामा की सच्ची व दयनीय दशा प्रत्यक्ष हो जाती है।

मीराँबाई के अपूर्व वर्णन कौशल के प्रमाण उनके कतिपय वाक्यों वा वाक्यांशों में किये गये शब्द चित्रणों में भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए पद 5 में ‘प्राण अँकोरे’, 7 में ‘निपट बँकट छवि’, 16 में ‘भगति रसीली’, 18 में ‘चरणाँ लिपट परूँ’, 10 में ‘खोल मिली तन गाती’, 62 में ‘धूतारा जोगी’ और ‘ऊभी जोऊँ कपोल’, 75 में ‘प्रेम की आंच ढुलावै’, 101 में ‘विरह कलेजा खाय’, 103 में ‘बह गई करवत अैन’, 143 में ‘रँगीली गण गोर’, 149 में ‘म्हारा ओलगिया’, 156 में ‘कसक कसक कसकानी’, 167 में ‘कलेजे की कोर और कुंडल की झकझोर’, 168 में ‘कँगना के झनकारे’, 169 में ‘मन की गांसुरी’, 174 में ‘कछुक टोनो कर्यो’, 181 में ‘‘ऐंडो डोले’, 183 में ‘हाथ मींजत रही’, आदि की भाव गम्भीरता पर विचार करना चाहिए।

अलंकार विधान

मीराँबाई की कविता विशेषतः भावमयी हाने के कारण, उसके काव्यत्व की प्रचुर मात्रा हमें, वस्तुतः, उक्त अपूर्व रसोद्भावना अथवा हृदयग्राही वर्णनों के ही अन्तर्गत मिल सकती है। तौ भी पदावली का मुख्य विषय एक परोक्ष वस्तु अर्थात् ‘हरि अविनासी’ प्रियतम होने से, उसके साथ प्रेम एवं सम्बन्ध को भावोत्तेजन द्वारा स्पष्ट करने के लिए, सादृश्य-योजना का आश्रय भी लेना ही पड़ा है और फलस्वरूप उसमें यत्रतत्र कुछ अलंकारों का विधान भी, स्वभावतः हो गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 165-168
  2. पद 169
  3. पद 170
  4. पद 171
  5. पद 172-173
  6. पद 174-175
  7. पद 177
  8. पद 178-179
  9. पद 181 व 183
  10. पद 184-186
  11. 166, 168, 171, 174, 175, 178, 179 और 183
  12. पद 179
  13. पद 181 व 188

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