मीराँबाई की पदावली पृ. 40

मीराँबाई की पदावली

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(उ) मीराँबाई तथा अन्य भक्त व कवि
तुलनात्मक अध्ययन

किसी भी व्यक्ति अथवा रचना की किसी अन्य व्यक्ति या रचना के साथ तुलना कर सहसा निष्कर्ष निकाल बैठना सदा प्रियकर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति अथवा रचनाएं ठीक एक समान नहीं हो सकतीं और न किन्हीं ऐसे दो व्यक्तियों वा रचनाओं में से एक को दूसरे से बढ़कर या घटकर कह देने के लिए कोई निश्चित व न्याय संगत आधार ही हो सकता है। किंतु तो भी वाह्य रूप से न्यूनाधिक समान दीख पड़ने वाली दो वस्तुओं को एक साथ अपनी दृष्टि में रखकर उन पर विचार करने से उनकी भिन्न भिन्न विशेषताओं के हृदयंगम करने से सुभीता हमें अवश्य मिल जाता है और यदि, अपनी मर्यादा को सदा ध्यान में रखते हुए, अपने किसी निर्णय को अंतिम रूप न दे डालें, तो वैसा कोई दोष भी नहीं आ पाता। मीरांबाई के जीवन तथा उनकी रचनाओं की विशेषता की परीक्षा करते समय, यदि हम उनकी तुलना किसी अन्य भक्त या कवि से करें तो, इसी कारण, कदाचित् अनुचित न समझा जाएगा।

मीरांबाई व नरसी मेहता

मीरांबाई की प्रगाढ़भक्ति और उनके जीवन के वैषम्य पर विचार करते समय, सर्वप्रथम, हमारा ध्यान गुजरात के प्रसिद्ध भक्त नरसी मेहता की ओर आकृष्ट हो जाता है जिनका जन्म, उनसे लगभग 85 वर्ष पूर्व, जूनागढ़ के एक नागर ब्राह्मण कुल में हुआ था। दोनों अपने अपने परिवार के लिए एक वृत्ताकार छिद्र के लिए चौकोर दंड की भाँति, सर्वथा अनुपयुक्त थे। दोनों, अपने अपने क्रमश: वर्ण या वंश की उच्चता व प्रतिष्ठा में बट्‌टा लगाने के कारण, तिरस्कृत हुए और दोनों को क्रमश: जाति बहिष्कार वा विषपान द्वारा, यातना पहुँचाने के प्रयत्न किए गए, दोनों को ही अपने अपने आत्मीयों के आकस्मिक वियोग से कुछ न कुछ शोक प्रकट करने का अवसर मिला और दोनों ने ऐसे विषाद से वैराग्य की ही शिक्षा पाई, और दोनों किसी विघ्न व बाधा से विचलित न होकर अपनी टेक पर पूर्ववत दृढ़ रह गए, और सदा की भाँति, भगवान के भजन व कीर्तन को ही अपनी दिनचर्या मान, एक भाव से उस एकमात्र कार्यक्रम को ही निरन्तर निभाते ही रह गए। भक्त नरसी ने अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु पर भी कहा था कि, ‘भलुं थयुं भांगी जंजाल, सुखे भजीशुं श्रीगोपाल’ अर्थात अच्छा ही हुआ विघ्न दूर हुए, अब मैं सुखपूर्वक भगवद्भजन में प्रवृत्त रहा करूँगा। वे जीविकोपार्जन न करने के कारण डांटे डपटे जाने पर बहुधा यही कह देते थे कि ‘एवा रे अमे एवा रे एवा, तमे कहो छो वली तेवारे’ अर्थात भाई मैं तो सदा ऐंसा ही रहता आया, विवश हूं, तुम्हारा कुछ कहना व्यर्थ है और उनका दृढ़ विश्वास था कि भगवान ‘प्रीत करूं प्रेमथी प्रगट थारो’ अर्थात प्रेम करने से अथवा प्रेम द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। मीरांबाई की मनोवृत्ति भी सदा इन जैसी भावनाओं से ही प्रेरित हुआ करती और वे भी इसी कारण, सुख दु:खादि से नित्य निर्द्वन्द सी रहती हुई 'बदनामी' को भी मीठी मान और भली बुली कहे जाने पर उसे अपनी सीस चढ़ा प्रेमोन्माद में मस्त डोलती रहा करती थीं। इन दोनों भक्त कवियों ने पदों की रचना की है। विनय के पद इन दोनों के प्राय: एक समान हैं। श्रृंगार वर्णन नरसी का अधिक स्पष्ट व नग्न सा है, मीरां का अधिक संयत व मर्यादित है। परंतु नरसी की प्राय: सभी रचनायें गुजराती भाषा में हैं और मीरां के अधिकतर हिंदी भाषा के ही पद मिलते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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