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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपातेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । जिनका चित्त इस प्रकार मुझमें ओतप्रोत है उनका जीवन और मृत्यु के संसार-सागर में गोते लगाने से मैं अविलम्बन उद्धार कर देता हूँ। मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । जो एकनिष्ठ भक्ति से मेरी उपासना करता है वह आनुवंशिक गुण की मर्यादा को पार कर लेता है और ब्रह्मरूप बनने के योग्य होता है। निम्नलिखित श्लोकों में गीता की शिक्षा का निष्कर्ष और उस विषय का अंतिम निर्णय निहित माना जाता है। ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण और उनकी कृपा के आश्रय के संबंध में इससे दृढ़तर आग्रह नहीं हो सकता। तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । सर्वभाव से तू उसकी शरण ले। उसकी कृपा से तू परम शांति और शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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