भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 38

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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मनोनिग्रह का अभ्यास

(अध्याय 2-श्लोक 60-63,67। अध्याय 3-श्लोक 36-41। अध्याय 16-श्लोक 21,22। अध्याय 18-श्लोक 36-37)

पिछले अध्याय में बताई हुई गीता की यह शिक्षा कि, सच्चा संन्यास आसक्ति रहित कर्म में है, संसार का त्याग करने में नहीं, कोई ऐसी उपपत्ति नहीं है, जिसे संसार का त्याग करने के अनिच्छुक लोगों के समर्थन अथवा सफाई के लिए प्रस्तुत किया गया हो। वह मनुष्यों के जीवन को प्रत्यक्षतः गढ़ने के लिये आधार के रूप में प्रतिपादित की गई है, जिससे कि उनमें निःस्वार्थता और अलिप्तता की आदत तथा स्फूर्ति विकसित हो। बतख पानी में तैरती है, परन्तु बाहर निकलने पर अपने शरीर का सब पानी झाड़ देती है। हमें उसी के समान संसार में रहना सीखना चाहिए। हमारे काम में दक्षता, सुधरता और कुशलता का अभाव न हो और फिर भी हम स्वार्थपूर्ण आसक्ति को विकसित न हो देने के लिये सतर्क रहें। अलिप्तता का यह भाव कायम रखने के लिये मनोनिग्रह का सतत अभ्यास आवश्यक है।

काम, क्रोध और लोग अच्छे संकल्प के शत्रु हैं। जो मनुष्य अपने अन्दर अनासक्ति का विकास करना चाहता है, उसे मन को क्षुब्ध करने वाले इन विकारों से सतत सावधान रहना चाहिये। यदि मन पर नियंत्रण हो गया तो शेष सब स्वयं सुधर जायगा। विचारों की शक्ति अच्छाई और बुराई दोनों ही के लिये बहुत बड़ी होती है। यदि मन पर सावधानी के साथ पहरा न रखा गया तो कामना इन्द्रियों को वश में कर लेगी। हमारे विचारों पर अधिकार जमा लेगी, हमारी बुद्धि को भ्रष्ट कर देगी और अन्त में हमारा नाश कर देगी। इसलिए कामना के साथ युद्ध उसी समय छेड़ देना चाहिये कि वह हमारे विचार-मंदिर में प्रवेश करने के लिये द्वार पर आकर खड़ी हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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