भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 87

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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उपसंहार

अब हम अपने अध्ययन का उपसंहार करेंगे।

हम अपने आत्मा के पूर्व-कर्मों और आसक्तियों के फलस्वरूप शरीर और मन के कतिपय पुणों और क्षमताओं के साथ उत्पन्न होते हैं। ये हमें दृढ़ता से जकड़े रहते हैं। परन्तु हमें अपने-आपको मुक्त करने की स्वतन्त्रता है। आत्मा के वर्तमान शरीर गत कर्म उसके भविष्य का निर्धारण करते हैं, चाहे वह कर्म-बंधनों से आंशिक या पूर्ण मुक्ति हो या और भी अधिक बंधन हो। पूर्व-बंधन कितना भी बड़ा क्यों न हो, परमात्मा की कृपा से यह छिन्न हो सकता है। ऐसा केवल दैवी कृपा की अन्तर्हित शक्ति के कारण नहीं, वरन् इसलिये भी होता है कि उस कृपा को प्राप्त करने के आत्मा के प्रयत्नों में, मन की दूसरी गति-विधियों के समान ही, कर्म-शक्ति विद्यमान रहती है। गीता सिखाती है कि ये प्रयत्न कौन से हों। उसमें इन्हें ‘योग’ कहा गया है।

गीता का योग एक प्रगतिशील और बहुमुखी साधना है। साधना के प्रयत्न अथवा असफलता से कोई हानि नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक सच्चा प्रयत्न स्वयं लाभदायी होता है। योग के अंग निम्नलिखित हैंः

(1) इंद्रियों पर विजय और आचार की पवित्रता तथा जीवन के साधारण क्रम, उपासना, कर्म, आहार, और निद्रा आदि का नियमन;

(2) स्वाभाविक योग्यता और समाज में अपनी स्थिति के अनुरूप अपने नियत कर्तव्यों का निःस्वार्थ भाव से तथा उतनी ही सावधानी से पालन;

(3) सच्चाई, अलिप्तता और सफलता, कठिनता, असफलता और आनन्द, शोक या निराशा के कारणों में समभाव रखने की साधना;

(4) मन की प्रवृत्तियों पर सतर्कतापूर्ण नियंत्रण और उसे अक्षुब्ध करने वाले विकारों-काम, क्रोध और लोभ पर विजय;

(5) शांत, एकाग्रचित ध्यान के लिये समय-समय पर अन्तर्मुख होना; और

(6) ईश्वर की कृपा के प्रति आत्मसमर्पण।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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