भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 82

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

अद्वैत और गीता का अनुशासन

अद्वैत मत के सम्बन्ध में केवल सुना हुआ या ऊपरी ज्ञान रखने वाले लोग यहां एक प्रश्न उठा सकते हैं। यदि आत्मा का पृथक अस्तित्व मायाजन्य है और केवल ईश्वर का ही अस्तित्व सत्य है तो तथाकथित मुक्ति के लिये यह कष्टमय प्रयत्न क्यों किया जाय? हम केवल यह सत्य जानकर संतुष्ट क्यों न रहें कि केवल ईश्वर का अस्तित्व है? यदि माया केवल दृष्टि का विषय होती तो वह आवश्यक हो सकता था; परन्तु माया ने अपना प्रभाव न केवल हमारी आंखों पर, वरन् प्रत्येक इन्द्रिय और हमारे मन पर भी डाला है और आत्मा में आसक्ति, विकार और संघर्ष उत्पन्न किया है। केवल आँखों को मलने से काम न चलेगा। हमारे जीवन के अणु-अणु को सत्य के प्रति जागृति होना पड़ेगा; क्योंकि माया हमारे अन्तरतम तक प्रविष्ट है। इसके अतिरिक्त, इतना जान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि हमें जागृत होना चाहिये। प्रत्यक्ष जागृत होना आवश्यक है। हमारी यह यथार्थ और पूर्ण जागृति ही मुक्ति कहलाती है। इसे चाहे माया से जागृत होने के इस उपाय से प्राप्त किया जाय, या आत्मा का सच्चा और पृथक अस्तित्व मानकर आत्मशुद्धि तथा आत्मा की मुक्ति का क्रम कहा जाय-दोनों अवस्थाओं में साधना-पद्धति एक ही है।

विषय-भोगों और उनमें आसक्ति से माया का प्रभाव दृढ़ होता तथा बढ़ता है। माया को दूर करने के लिये उनका त्याग करना आवश्यक है। यदि मायाजन्य अज्ञान न हो, तो गुरु से प्राप्त यह ज्ञान कि ईश्वर और आत्मा एक ही है, मुक्ति या जागृति के क्रम में सहायक हो सकता है; परन्तु केवल उतना ही पर्याप्त न होगा। उसके लिये सच्चा वैयक्तिक प्रयत्न आवश्यक है। जैसे-जैसे हम सच्चे ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं वैसे-वैसे अपने आपको विकारों और आसक्तियों से मुक्त करने के इन वैयक्तिक प्रयत्नों की आवश्यकता घटती जाती है, उसके प्रमाण में वह कम हो जाती है।

चाहे जीवात्मा को माया का परिणाम माना जाय-जबकि उसकी मुक्ति का साधन व्यक्तिगत अस्तित्व की कल्पना उत्पन्न करने वाले भ्रम का निवारण करना होगा, चाहे उसे पृथक, आदिरहित, स्वतन्त्र और पंचभूतों से आवृत्त माना जाय-जबकि उसे ब्रह्मप्राप्ति के योग्य बनने की साधना द्वारा अपनी मुक्ति का प्रयत्न करना पड़ेगा, दोनों अवस्थाओं में साधना-क्रम एक ही है। यदि आत्मा का पृथक अस्तित्व भ्रम है, तो विषय भोग के प्रति आसक्ति और काम, लोभ तथा क्रोध उस भ्रम को बढ़ाने वाले हैं और इनका निवारण होना ही चाहिये। सच्ची श्रमनिवृत्ति से पाप और आसक्तियों का अन्त आप-ही-आप हो जायेगा। दूसरी ओर पवित्र जीवन, निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन और मन के ममत्व से छिपे हुए सत्य का साक्षात्कार होता है। जहाँ आसक्तियों का अन्त नहीं हुआ, वहाँ, हम मान सकते हैं कि, ज्ञान सच्चा नहीं है; घटता नहीं। द्वैतवाद के अनुसार भी, सच्चे ज्ञान की प्राप्ति और माया का निवारण उसी उपाय से हो सकता है, जो आत्मा का पृथक अस्तित्व मानकर कर्मबन्धनों से मुक्त होने के लिए बताया गया है। इस प्रकार जीवात्मा के मूल स्वभाव के सम्बन्ध में अनेक मतमतान्तर होते हुए भी, गीता सभी लोगों के लिए एक जीवन-ग्रन्थ है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः