भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 71

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपा

(अध्याय 9-श्लोक 22। अध्याय 10-श्लोक 9-11। अध्याय 12-श्लोक 5-7। अध्याय 14-श्लोक 26। अध्याय 18-श्लोक 62, 64-66)

गीता में निराकार और निरपेक्ष ब्रह्म की उपासना की कठिनता को स्वीकार किया गया है; अतएव साधक को सृष्टि के पे्रमपूर्ण शासक के रूप में साकार ब्रह्म की उपासना करने का निर्देश है। उसे सदा स्मरण रखते हुए हमें सब कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिये और अपने सब कर्मों को उसकी सेवा तथा उपासना के रूप में उसे समर्पित कर देना चाहिए। अन्ततः उसका प्रसाद ही हमें आत्मसंयम की शक्ति, ज्ञान एवं शांति प्रदान करके और लोभ, संशय, दुर्बलता तथा भ्रांति से हमारी रक्षा करके हमें बचा सकेगा। हिन्दू धर्म का यह स्वरूप मोक्ष का भक्ति-मार्ग कहलाता है, तथापि यह अपने नियत कर्म करने में निःस्वार्थता और अलिप्तता के व्यवहार का विकल्प नहीं, वरन पूरक है। यह प्रश्न ही नहीं किया जा सकता कि ईश्वरीय कृपा की अर्थना और कर्तव्यपालन में अधिक महत्व किसका है। इनमें से कोई भी एक गीता की शिक्षा का प्राथमिक और दूसरा पूरक अंश माना जा सकता है।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥22॥[1]

जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं और उसे जो इस प्रकार नित्य मुझ में ही रत रहते हैं, उनके योग-क्षेम का भार मैं उठाता हूँ।

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यंति च रमंति च ॥9॥[2]

वे मुझ में चित्त लगाते हैं, वे मेरे लिये जीवित रहते हैं, वे नित्य मेरा गुणानुवाद करने में और परस्पर मेरे विषय में बोध करने कराने में आनन्द और परम संतोष प्राप्त करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 9-22
  2. दोहा नं0 10-9

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