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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
आदर्श-तप-आहारआयु: सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: । आयुष्य तथा प्राणशक्ति, शारीरिक बल, आयोग्य, सुख और प्रीति बढ़ाने वाले आहार, जो सुस्वादु हों, पौष्टिक और तृप्तिकारक हों, सात्विक स्वभाव के लोगों को प्रिय होते हैं। कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्ण रूक्ष विदाहिन: । राजसी लोग, तीखे, खट्टे, खारे, बहुत गर्म, चरपरे, सूखे, और दाहकारक आहारों की इच्छा करते हैं ये रोग, दुःख और शोक उत्पन्न करने वाले होते हैं। यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् । जो आहार ताजा नहीं है, जिसका स्वाद नष्ट हो गया है, जो बासा, दुर्गन्धित, जूठा और अपवित्र है, वह तामसिक स्वभाव वाले लोगों को प्रिय होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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