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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ईश्वर और प्रकृतिअहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाऽहमहमौषधम् । यज्ञ का संकल्प मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, यज्ञ द्वारा पितरों का आधार में हूँ, यज्ञ की वनस्पति मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, आहुति मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन-द्रव्य मैं हूँ। पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामह: । इस जगत् का पिता, माता धारण करने वाला और पितामह मैं हूं । जानने योग्य पवित्र मैं, ओंकार मैं और ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं ही हूं। गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् । गति, पोषक, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, हितैषी, उत्पत्ति, नाश, स्थिति, भंडार और अव्यय बीज भी मैं ही हूँ। तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । धूप मैं देता हूँ, वर्षा को मैं ही रोक रखता और बरसने देता हूँ। मृत्यु मैं हूँ और सत् तथा असत् भी मैं ही हूँ। निम्नलिखित श्लोक अपरिवर्तनीय नियम की सदा वर्तमान मर्यादा का परिचायक है, यद्यपि उस मर्यादा के अन्तर्गत प्राणी अपने कर्मों के लिए स्वतंत्र हैं। यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान । जैसे सर्वत्र विचरती हुई महान् वायु आकाश में नित्य स्थित है, वैसे ही सब प्राणी मुझ पर अवलम्बित हैं, ऐसा जान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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