गोपी गीत -करपात्री महाराजप्रथम श्लोक में साधनावस्था का वर्णन है। अभी साधक को भगवान की प्राप्ति नहीं हुई है। द्वितीय श्लोक में साधक भक्त की मानसिक स्थिति का वर्णन है, जिसके फलस्वरूप उसे भगवान की प्राप्ति बताई गई है। यहाँ मन की भावना से ही वह भगवान को देखता है, सुनता है और रमण करता है। भक्त का भगवान में यह रमण करना कुत्सित इन्द्रियों का कार्य नहीं है। यह परम पवित्र मानसिक भाव है। इसी मानसिक भाव से वह भगवान चिन्तन करता है, उनके स्पर्श का अनुभव करता है और उनके साथ भाषण करता है। निष्कर्ष यह है कि भगवान पर कुत्सित क्रियाओं का आरोप करना, अपनी ही कुत्सित क्रियाओं को उजागर करना है। भक्ति के शान्त, दास्य, सख्य, माधुर्य आदि अनेक भाव रहते हैं। ये सभी भाव समान कोटि के ही समझने चाहिये। अपने-अपने क्षेत्र में सभी भाव श्रेष्ठ है। जिस भक्त को जो भाव प्रिय हो उसके लिये वही भाव सर्वोत्तम है। हनुमान जी ने दास्यभाव को ही सर्वोत्तम समझकर उसे ही स्वीकार किया। वसुदेव-देवकी तथा नन्द-यशोदा ने वात्सल्यभाव को ही सर्वोत्तम समझकर उसे ही स्वीकार किया। राधारानी और गोपीजनों ने माधुर्यभाव को ही सर्वोत्तम समझकर उसे ही स्वीकार किया। इस माधुर्यभाव में प्राकृत साधारण लौकिक स्त्री-पुरुषों की तरह कामवासनाजनित अंग-संग आदि कोई कुत्सित क्रिया नहीं है। यह तो परम-पवित्र भाव है। भक्त अपने भगवान को इस भाव में सर्वथा आत्मसमर्पण कर देता है और उन्हीं के मधुर चिन्तन, मधुर नामस्मरण, मधुर भाषण, मधुर मिलन आदि में मग्न रहता है। ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’-भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म-परमेश्वर हैं। वे समस्त दोषों से सर्वदा और सर्वथा ही रहित हैं, वे समस्त कल्याणमय गुण-गणों से सर्वदा और सर्वथा सम्पन्न हैं। उनके नामस्मरणमात्र से उनके गुण उनकी लीलाओं के श्रवण-मनन-चिन्तन-कथन से ही मलिन-से-मलिन मनुष्य परम पवित्र होकर दुर्लभ परमपद को प्राप्त हो जाता है। अतः साक्षात उनमें किसी भी दोष की कल्पना कैसे की जा सकती है? उनमें दोष की कल्पना करना अपने ही दोषों का उद्- घाटन करना है। कृष्णं कमलपत्राक्षं नार्चयिष्यन्ति ये नराः। |