गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 71

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

प्रेमास्पद में प्रेम के उत्कर्ष से आनन्दोद्रेक होता है; आनन्दोद्रेक से सम्पूर्ण जगत् का विस्मरण हो जाता है। ऐसे ही सुषुप्ति-काल में प्राज्ञ परमात्मा के सम्मिलनजन्य आनन्द से प्रपन्च का विस्मरण एवं सप्रपन्च ब्रह्म में सातिशय प्रेम अद्भुत होता है। सुषुप्ति में सावरण ब्रह्मानन्द की ही प्राप्ति होती है। जैसे मेघ-समावृत सूर्य ही मेघ का अवभासक है वैसे ही अज्ञान से समावृत अज्ञान का प्रकाशक निष्प्रपंच-अद्वैत स्वप्रकाशानन्दरूप आत्मा है जो सुषुप्ति-काल में जीव को मिलता है। जागर के अन्त में और सुषुप्ति के पूर्व तथा सुषुप्ति के अन्त और जागर के पूर्व में कुछ क्षण निष्प्रतिबिम्ब दर्पण की तरह शुद्ध निर्दृश्य, चिद्रूप, अखंडभान का दर्शन होता है। जैसे लक्षणा-ज्ञान एवं परिचय के लिए अन्य दृश्य की ओर से दृष्टि व्यावर्तनपूर्वक तत्परता से प्रयत्न करने पर स्पष्ट रूपेण ध्रुव का परिचयपूर्वक दर्शन होता है ठीक इसी तरह सदा ही सुषुप्ति एवं जागर के अन्त में यद्यपि सभी को निर्दृश्य शुद्ध-दृक्-रूप, स्वयं-प्रकाश, अखण्डभान का दर्शन होता है तथापि परिचयपूर्वक सुस्पष्ट साक्षात्कार नहीं हो पाता। तत्परतापूर्वक उसी के साक्षात्कार से जीव सदा के लिए बन्धन-मुक्त हो जाता है।

सुषुप्ति-काल में अवद्यिा-काम-कर्म-विशिष्ट जीव सबीज ब्रह्म का सायुज्य प्राप्त करता है। भगवान् योगमाया-समावृत हैं, जीवात्मा वासनायुक्त है; ‘नाहम् प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।’ अतः जाग्रत् एवं स्वप्न-अवस्था के हेतुभूत अविद्या-काम-कर्मवशात् वासना के पुनः उद्भूत होने पर सुषुप्तिदशा भंग हो जाती है। निरावरण, परात्पर परब्रह्म सम्मिलन हेतु जीव के स्वयं सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त हो अग्रसर होने पर ही व्यवधानरहित ब्रह्म सायुज्य संभव हो सकता है। जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों ही उपाधि संयुक्त अवस्थाएँ हैं। माता-पिता के शोणित-शुक्रजन्य स्थूल शरीर, बहिर्मुख मन, इन्द्रियाँ एवं बुद्धि जाग्रत अवस्था की, अर्द्ध-निद्रा अर्ध-विलीन मन स्वप्नावस्था की तथा अविद्या सुषुप्तावस्था की उपाधियाँ हैं। ‘अविशुद्ध सत्त्वप्रधाना प्रकृतिः।’ अविशुद्ध सत्त्व-प्रधान-भूत जो प्रकृति है वही अवद्यिा है। सर्वोपाधि-विवर्जित, अखण्ड बोध, अनन्त चिद्-प्रकाश सत्ता ही निरावरण ब्रह्म है। निरावरण ब्रह्म ही तुरीय-तत्त्व है। निरावरण सच्चिदानन्द तुरीय-तत्त्व ही रूपान्तर से तरीयातीत-तत्त्व भी कहा गया है।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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