इन्द्र एवं धर्म के साथ युधिष्ठिर का वार्तालाप

महाभारत महाप्रस्थानिक पर्व के अंतर्गत तीसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने युधिष्ठिर का इंद्र और धर्म आदि के साथ वार्तालाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर और इन्द्र का वार्तालाप

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर आकाश और पृथ्‍वी को सब ओर से प्रति‍ध्‍वनित करते हुए देवराज इन्द्र रथ के साथ युधिष्ठिर के पास आ पहुँचे और उनसे बोले- ‘कुन्तीनन्दन! तुम इस रथ पर सवार हो जाओ’ अपने भाइयों को धराशायी हुआ देख धर्मराज युधिष्ठिर शोक से संतप्‍त हो इन्द्र से इस प्रकार बोले- ‘देवेश्वर! मेरे भाई मार्ग में गिरे पड़े हैं। वे भी मेरे साथ चलें, इसकी व्यवस्था कीजिये; क्योंकि मैं भाइयों के बिना स्वर्ग में जाना नहीं चाहता। पुरन्दर! राजकुमारी द्रौपदी सुकुमारी है। वह सुख पाने के योग्‍य है। वह भी हम लोगों के साथ चले, इसकी अनुमति दीजिये'। इन्द्र ने कहा- भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे सभी भाई तुमसे पहले ही स्वर्ग में पहुँच गये हैं। उनके साथ द्रौपदी भी है। वहाँ चलने पर वे सब तुम्हें मिलेंगे। भरतभूषण! वे मानवशरीर का परित्याग करके स्वर्ग में गये हैं; किंतु तुम इसी शरीर से वहाँ चलोगे, इसमें संशय नहीं है।

युधिष्ठिर बोले- 'भूत और वर्तमान के स्वामी देवराज! यह कुत्ता मेरा बड़ा भक्त है। इसने सदा ही मेरा साथ दिया है; अत: यह भी मेरे साथ चले- ऐसी आज्ञा दीजिये; क्योंकि मेरी बुद्धि में निष्ठुरता का अभाव है'। इन्द्र ने कहा- राजन! तुम्हें अमरता, मेरी समानता, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्‍त हुई है; अत: इस कुत्ते को छोड़ो और मेरे साथ चलो। इसमें कोई कठोरता नहीं है।

युधिष्ठिर बोले- 'सहस्रनेत्रधारी देवराज! किसी आर्यपुरुष के द्वारा निम्न श्रेणी का काम होना अत्यन्त कठिन है। मुझे ऐसी लक्ष्मी की प्राप्ति कभी न हो जिसके लिये भक्तजन का त्याग करना पड़े'। इन्द्र ने कहा- धर्मराज! कुत्ता रखने वालों के लिये स्वर्गलोक में स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने और कुआँ, बावड़ी आदि बनवाने का जो पुण्‍य होता है उसे क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं; इसलिये सोच-विचारकर काम करो। छोड़ दो इस कुत्ते को। ऐसा करने में कोई निर्दयता नहीं है।

युधिष्ठिर बोले- 'महेन्द्र! भक्त का त्याग करने से जो पाप होता है, उसका अन्त कभी नहीं होता-ऐसा महात्मा पुरुष कहते हैं। संसार में भक्त का त्याग ब्रह्महत्या के समान माना गया है; अत; मैं अपने सुख के लिये कभी किसी तरह भी आज इस कुत्ते का त्याग नहीं करूँगा। जो डरा हुआ हो, भक्त हो, मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं है- ऐसा कहते हुए आर्तभाव से शरण में आया हो, अपनी रक्षा में असमर्थ-दुर्बल हो और अपने प्राण बचाना चाहता हो, ऐसे पुरुष को प्राण जाने पर भी मैं नहीं छोड़ सकता; यह मेरा सदा का व्रत है'। इन्द्र ने कहा- वीरवर! मनुष्य जो कुछ दान, यज्ञ, स्वाध्‍याय और हवन आदि पुण्‍यकर्म करता है, उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि भी पड़ जाय तो उसके फल को क्रोधवश नामक राक्षस हर ले जाते हैं; इसलिये इस कुत्ते का त्याग कर दो। कुत्ते को त्याग देने से ही तुम देवलोक में पहुँच सकोगे। वीर! तुमने अपने भाइयों तथा प्‍यारी पत्नी द्रौपदी का परित्याग करके अपने किये हुए पुण्‍यकर्मों के फलस्वरूप देवलोक को प्राप्‍त किया है। फिर तुम इस कुत्ते को क्यों नहीं त्याग देते? सब कुछ छोड़कर अब कुत्ते के मोह में कैसे पड़ गये?

युधिष्ठिर ने कहा- 'भगवन! संसार में यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ न तो किसी का मेल होता है न विरोध ही। द्रौपदी तथा अपने भाइयों को जीवित करना मेरे वश की बात नहीं है; अत: मर जाने पर मैंने उनका त्याग किया है, जीवितावस्था में नहीं शरण में आये हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना- ये चार अधर्म एक और भक्त का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।[1] भक्त का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।[2]

धर्म और युधिष्ठिर का वार्तालाप

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर कुत्ते का रूप धारण करके आये हुए धर्मस्वरूपी भगवान बड़े प्रसन्न हुए और राजा युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए मधुर वचनों द्वारा उनसे इस प्रकार बोले। साक्षात धर्मराज ने कहा- राजेन्द्र! भरतनन्दन तुम अपने सदाचार, बुद्धि तथा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति होने वाली इस दया के कारण वास्तव में सुयोग्‍य पिता के उत्तम कुल में उत्पन्न सिद्ध हो रहे हो। बेटा! पूर्वकाल में द्वैतवन के भीतर रहते समय भी एक बार मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी; जबकि तुम्हारे सभी भाई पानी लाने के लिये उद्योग करते हुए मारे गये थे। उस समय तुमने कुन्ती और माद्री दोनों माताओं में समानता की इच्‍छा रखकर अपने सगे भाई भीम और अर्जुन को छोड़ केवल नकुल को जीवित करना चाहा था। इस समय भी ‘यह कुत्ता मेरा भक्त है’ ऐसा सोचकर तुमने देवराज इन्द्र के भी रथ का परित्याग कर दिया है; अत: स्वर्गलोक में तुम्हारे समान दूसरा कोई राजा नहीं है। भारत! भरतश्रेष्ठ! यही कारण है कि तुम्हें अपने इसी शरीर से अक्षय लोकों की प्राप्ति हुई है। तुम परम उत्तम दिव्यगति को पा गये हो।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-38

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