रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 214

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

चौथा अध्याय

Prev.png
श्रीभगवानुवाच
मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थेकान्तोद्यमा हि ते।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थ तद्धि नान्यथा।।17।।

इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिय सखियों! जो लोग प्रेम करने पर ही बदले में प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्यम केवल स्वार्थ के लिये ही है। उनमें न तो सौहार्द है और न धर्म या कर्तव्य का भाव ही है। उनकी तो वह प्रेम- चेष्टा केवल स्वार्थ के हेतु से ही होती है, उनका और कोई प्रयोजन नहीं होता।।17।।

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा।
धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः।।18।।

सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वालों से प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुण हृदय पुरुष एवं माता-पिता प्रेम करते हैं, उनके इस बर्ताव में कोई दोष नहीं होता, और पूर्ण धर्म तथा सौहार्द ही भरा रहता है।।18।।

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः।
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः।।19।।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, फिर प्रेम न करने वालों से प्रेम करने की बात ही क्या है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं - एक तो वे जो नित्य आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं, दूसरे वे जिनकी सब कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; तीसरे वे, जो कृतघ्न हैं, किये गये उपकार तथा प्रेम का स्मरण भी नहीं करते; और चौथे वे, जो अपना सहज हित करने वाले गुरुजनों से भी द्रोह करते हैं।।19।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः