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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चौथा अध्याय
इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिय सखियों! जो लोग प्रेम करने पर ही बदले में प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्यम केवल स्वार्थ के लिये ही है। उनमें न तो सौहार्द है और न धर्म या कर्तव्य का भाव ही है। उनकी तो वह प्रेम- चेष्टा केवल स्वार्थ के हेतु से ही होती है, उनका और कोई प्रयोजन नहीं होता।।17।।
सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वालों से प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुण हृदय पुरुष एवं माता-पिता प्रेम करते हैं, उनके इस बर्ताव में कोई दोष नहीं होता, और पूर्ण धर्म तथा सौहार्द ही भरा रहता है।।18।।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, फिर प्रेम न करने वालों से प्रेम करने की बात ही क्या है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं - एक तो वे जो नित्य आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं, दूसरे वे जिनकी सब कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; तीसरे वे, जो कृतघ्न हैं, किये गये उपकार तथा प्रेम का स्मरण भी नहीं करते; और चौथे वे, जो अपना सहज हित करने वाले गुरुजनों से भी द्रोह करते हैं।।19।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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