रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 213

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

चौथा अध्याय

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सभाजयित्वा तमनंगदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।
संस्पर्शनेनांककृताङ्घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे।।15।।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सौन्दर्य-सुधा पिलाकर जिनके मन में विशुद्ध काम-भगवत्प्रेम को उद्दीप्त कर दिया था, वे गोपियाँ अपनी मधुर मुसकान, विलासपूर्ण कटाक्ष तथा भौहों की मटक से एवं अपनी गोद में रखे हुए भगवान के चरण-कमलों और कर-कमलों को सहलाकर उनका सम्मान करती हुई आनन्दातिरेक से उनके रूप-गुणों की प्रशंसा करने लगीं। फिर उनके अन्तर्धान होने की बात याद आते ही किंचित प्रणय-कोप दिखाती हुई वे बोलीं।।15।।

गोप्य ऊचुः
भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्।
नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः।।16।।

गोपियों ने कहा - कुछ लोग तो प्रेम करने वालों से ही बदले में प्रेम करते है; कुछ लोग इसके विपरीत, प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों तथा न करने वाले - दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्रियतम! इन तीनों के विषयों में हमें समझाकर बतलाओ। यह बतलाओ कि तुम इनमें से किसको अच्छा समझते हो और तुम कौन-से हो?।।16।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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