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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान ने कहा कि जो मेरे जन हैं - मेरे निजजन-उनके अपने बहुत कम होते हैं। कोई मुक्ति के होते हैं, कोई भुक्ति के जन होते हैं। हरिजन असली नहीं होते। आज कल के हरिजन दूसरे। जो निजजन भगवान के हैं वे निज सेवा में रहते हैं, व्यक्तिगत होते हैं। एक तो होते हैं आफिस के सेक्रेटरी, आफिस का काम करते हैं। खूब मजे में दरबार का काम करते हैं। और एक होते हैं पर्सनल सैक्रेटरी वो व्यक्तिगत काम जो उसका है उसको देखते हैं। उनका महत्त्व अधिक होता है। उनके समने अन्तरंग बात भी खुलती है। क्योंकि वे अन्तरंग सेवा करते हैं। इसी प्रकार जो निजजन भगवान के होते हैं; वे सेवा को छोड़कर किसी और चीज को नहीं ग्रहण करते। उनको कोई अगर दूसरा बड़ा भारी महकमा दे दे, राजा बना दे तो कहते हैं यह नहीं, हमकों तो सेवा में रखो। यहाँ पाँच प्रकार की मुक्तियों का भेद बताया है। सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि, सारुप्य और एकत्व-इन पाँच प्रकार की मुक्तियों को देने पर भी वे मेरे निजजन मेरी सेवा को छोड़कर इन्हें स्वीकार नहीं करते। ऐसे जो लोग हैं उनके सामने भगवान बाध्य हो जाते हैं। भगवान की योगमाया-वंचनामाया का वहाँ काम नहीं पड़ता। कहते हैं कि यहाँ पर विप्र-पत्नियाँ तो लौट गयीं परन्तु कृष्ण सेवा लाभ की अनधिकारी हो गयीं और ये व्रजरमणियाँ जब श्रीकृष्ण के वंशीनाद को सुनकर आकृष्ट होकर श्रीकृष्ण के समीप पहुँची तो वहाँ भी यही चेष्टा हुई। योगमाया ने वंचना की कि जाओ लौट जाओ। वहाँ परतो एक ही बात कही पर यहाँ तो योगमाया के द्वारा भगवान ने बड़ा व्याख्यान दिया। भगवान ने पूछा कि शोभा देखने आयी थी कोई बात नहीं। प्रेम से तो लोग आते ही हैं मेरे पास, आकर्षित होते हैं; तुम भी आयी। तुमने मुझको भी देख लिया। अब अंधियारी रात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 3।29।13
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