श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग वागेश्र-तीन ताल)अपनी सम्पूर्ण महानता, भगवत्ता एवं सत्ता का समस्त अधिकार भूलकर और संकोच का बोझ उतारकर तथा परवाह छोड़कर स्वयं तुच्छ बनकर तुम मुझ नगण्य- नाचीज से इस प्रकार मिले, मानो कोई मिलने के लिये अत्यन्त आतुर- उतावला और अधीर हो। और-तो-और, तुम अपनी तत्वरूपता- वास्तविक सर्वरूपता को भूलकर नेत्रों से आँसू बहाने लगे ॥ 8-9॥ इतना ही नहीं, व्याकुल होकर अगाध रस भरकर तथा पवित्र रस की सरिता के तीर पर आकर सब प्रकार की मर्यादा एवं धीरज के बाँध को सर्वथा तोड़कर उस नदी में तुम अत्यन्त गहरे गोते लगाने लगे ॥ 10॥ उस समय रस की वह पावन सरिता अपार रूप से बढ़ गयी और उमड़कर चारों ओर छा गयी, व्याप्त हो गयी। सब प्रकार के भेदभाव उसकी गहराई में डूब गये, विलीन हो गये और उस रस सरिता का कहीं ओर-छोर नहीं रहा ॥ 11॥ प्रेमी, प्रेम और परम प्रेमास्पद का भेद-ज्ञान तनिक भी नहीं रहा और तुम बेभान हो गये। उस समय तुमको यह भी ज्ञान नहीं रह गया कि ‘केवल मैं तुम्हारी राधा प्यारी हूँ’ अथवा ‘मेरे प्रियतम तुम नन्दकिशोर ही हो’ (केवल मैं रह गयी हूँ या केवल तुम्हीं हो’- इस बात का भी भान नहीं रहा) ॥ 12॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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