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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
मनोनिग्रह का अभ्यासधूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । जैसे धुएं से अग्नि, मैल से दर्पण या झिल्ली से गर्भ ढंका रहता है, वैसे ही इस शत्रु से ज्ञान आवृत्त रहता है। आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । तृप्त न किया जा सकने वाला यह कामरूपी शत्रु ज्ञानियों का नित्य बैरी है। यह ज्ञान को घेरकर बंदी बना रखता हैं इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । कहा गया है कि शत्रु इन्द्रियों, मन और बुद्धि पर अधिकार करके और इस प्रकार ज्ञान को घेर कर एवं पृथक करके, उनके द्वारा देही अर्थात् आत्मा को भ्रांत कर देता है। तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । इसलिये पहले तो इन्द्रियों को शासन में रखकर इस पापी का नाश कर। जो ऐसा न किया तो, ज्ञान और विवेक को नष्ट कर डालेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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