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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
मनोनिग्रह का अभ्यासयततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित: । इन्द्रियों का स्वभाव इतना प्रबल है कि चतुर पुरुष के सच्चाई के साथ उद्योग करते रहने पर भी वे उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: । इन सबको वश में रखकर उसे शान्त मन से और मुझमें तन्मय होकर रहना चाहिये। जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है उसकी बुद्धि स्थिर है। ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते । जब कोई मनुष्य अपने मन को विषयों के चिन्तन में लगा देता है तो उसे उनमें आसक्ति होती है। आसक्ति कामना में परिणत होती है और कामना से क्रोध के कारण उत्पन्न होते हैं। क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: । क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। मूढ़ता से स्मृति और बोधशक्ति भ्रांत हो जाती है। इस भ्रांति से विवेक-शक्ति का नाश होता है और विवेक शक्ति नष्ट हो गई तो मनुष्य का नाश हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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