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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मसक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । जैसे अज्ञानी लोग आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी को आसक्तिरहित होकर लोक कल्याण्य की इच्छा से कर्म करना चाहिये। न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। कर्म-फल में आसक्त अज्ञानी मनुष्य की बुद्धि को ज्ञानी डावांडोल न करे, परन्तु स्वयं योग के नियमों का अनुसरण करके कर्म करे और सब कर्मों को आकर्षक बनाए। प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु । प्रकृति के गुणों से मोहे हुए मनुष्य उस मोहजनित आसक्ति से कर्म में प्रवृत्त होते हैं। जिसे सत्य की अनुभूति हो गई है, वह इन दुर्बल मन वाले लोगों की कच्ची बुद्धि को अस्थिर न करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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