गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11विवेकशून्य होकर हम भी पशुतुल्य ही हो गई हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं’ हे सखियों। हम तो गोपकुमार हैं, गोपालन हमारा धर्म है। ये पशुगण, गाय-बछड़े हमारे इष्टदेव हैं, इनकी रक्षा करते हुए इनका अनुमान करना हमारा धर्म है। अतः स्वधर्म-पालन हेतु ही हम इनके पीछे-पीछे घूमते हैं। इसका उत्तर देती हुई पुनः कहती है, हे कान्त! ‘नलिन सुन्दरं ते पदं; कमल से भी अधिक कोमल एवं सुन्दर आपके चरणारविन्द प्रेमरूप रज्जु सो आबद्ध हैं अतः ‘स्वतः गन्तुं असमर्थम्ं’ स्वतः चलने में असमर्थ हैं तथापि ‘भवान् बलात् चालयति’, आप उनको बलात् चलने पर विवश कर रहे हैं। निरावारण भगवद् चरणारविन्द संस्पर्श कामना से ही अनंक ऋषि, महर्षि एवं अन्यान्य देवगण भी लता, द्रुम एवं पाषाणादि अनेक रूपों में वृन्दाटवी में अवतरित हुए। इन देवगण एवं अनेकानेक योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलत्मा, परमहंस जनों की वांछा पूर्त्यार्थ ही भगवान् श्रीकृष्ण गोचारण के व्याज से वृन्दाटवी में निरावृत चरणारविन्दों से अटन करते हैं। यही कारण है कि गोप कुमार, गोपल स्वरूप में भगवान् श्री कृष्णचन्द्र के निरावृत चरणारविन्द संस्पर्श प्राप्ती का सौभाग्यातिशय केवल मात्र वृन्दावन धाम की भूमि को ही प्राप्त हुआ; वृन्दावन धाम से अन्यत्र मथुराधाम यहाँ तक की वैकुण्ठ धाम की भूमि भी इस अतिरिक्त सौभाग्य को न पा सकी क्योंकि इन धामों में भगवान् के ऐश्वर्य- स्वरूप का ही विशेषतः प्राकट्य हुआ है। पूर्वप्रसंगों में इस विषय की विस्तृत विवेचना की जा चुकी है। इस सम्पूर्ण विवेचना का अन्ततोगत्वा तात्पर्य यही है कि प्रभु के निरावरण चरणारविन्दों का संस्पर्श दुर्लभाति-दुर्लभ, सौभाग्यातिशय है। ‘मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। अर्थात अनन्ताननंद प्राणियों में कोई एक भगवद्-परायण होता है; इन भग-वद् परायण जनों में भी कोई एक भगवत्-पद-संस्पर्श प्राप्तियोग्य होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् गीता 7/3