गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1लोकोत्तर सौभाग्यशालिनी होने पर भी गोपाङ्गनाएँ कभी धरित्री के सौभाग्य पर तो कभी नील-नीरधर घनश्याम में चमकती दामिनी को देखकर उसकी सौभाग्यातिशयता पर मुग्ध हो कहने लगती हैं, ‘तडितः पुण्यशालिन्यो याः सदा घनजीवनाः। अर्थात, हे सखि! यह तड़ित्, यह दामिनी बड़ी सौभाग्यशालिनी है। यह अपने प्रियतम घनश्याम के वक्षःस्थल पर ही विचरण करती हुई सदा दृष्टि गोचर होती है। नील-नीरधर के दर्शन न हों तो दामिनी के दर्शन भी कदापि संभव नहीं। इस घनश्याम-निर्भर तड़ित के प्रति ईर्ष्यालु व्रजवनिताएँ आकांक्षा करती हैं कि हमारे अस्तित्व भी व्रजेन्द्रनन्दन, मदनमोहन श्यामसुन्दर से संश्लिष्ट हों तथा उनके ही प्राकट्य पर निर्भर हों। मेघ-श्याम-संवलित तड़ित् से गोपांगना-जन पूछती हैं, हे आलि! हे सखि! हे तड़ित्! यह बताओ कि तुमने किस पवित्र काल में, किस पवित्र देश में, किस पवित्र क्षेत्र में कौन पवित्र तपस्या की और कितनी की? यह लोकोत्तर सौभाग्य जो तुमको प्राप्त हुआ है बिना तपस्या के सम्भव नहीं। ये जो नीलनीरधर श्यामघन अम्बुधर हैं ये तो हमारे श्यामसुन्दर के उरस्थल तुल्य हैं। भगवान् के वक्षस्थल तुल्य इस गम्मीर नील-नीरधर पर तुम सदा विराजमान रहती हो, सदा ही उसके संग रमण करती हो। हे तड़ित्! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो, धन्य-धन्य हो! इसलिए हमें भी बताओ, हम भी तुम्हारे जैसा तप करें, तुम्हारा जैसा ही सौभाग्य प्राप्त करें। भाव-विभोर गोपाङ्गनाएँ ऐसी अनेक कल्पनाएँ करती रहती हैं। विशेष भावोत्कर्ष-प्राप्त भक्त-हृदय में ही ऐसी असाधारण भाव-लहरियाँ उत्थित होती हैं; भगवत्ससान्निध्य-प्राप्त भक्त को ही भगवत् संस्पर्श एवं दर्शन अत्यन्त दुर्लभ प्रतीत होता है। जैसे किसी रंक को चिन्तामणि की प्राप्ति प्रतीत होती है वैसे ही लोकोत्तर सौभाग्यशालिनी राधारानी को भी कृष्ण-दर्शन एवं संस्पर्श अत्यन्त ही दुर्लभ प्रतीत होता है। श्री मन्नारायण भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के निरावरण चरणाविन्द के संस्पर्श का सौभाग्य वृन्दावनधाम को ही प्राप्त हुआ; गोवर्धन-पर्वत के चतुर्दिक् विस्तृत विशाल भूमिखण्ड ही वृन्दावन-धाम है; ‘मध्ये गोवर्धनं तत्र।’ यह वृन्दावनधाम भी व्रज-धाम से उद्व्याप्त है। |