गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2मानिनी व्रजांगनाएँ पुनः कह रही हैं हे वरद! ‘स्वदत्तानामपि वराणां खण्डकः वरान् द्यति खण्डयतीति वरदः’ आप अपने दिए हुए वरदान का ही खण्डन करने वाले हैं। कात्यायनी-व्रत के अन्तर्गत आपने स्वयं ही प्रकट होकर हम व्रजांगनाओं को स्वस्वरूप-संभोग का वरदान दिया था; अब अन्तर्धान होकर आप अपने दिए हुए वरदान का ही छेदन कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण में मानिनी गोपांगनाएँ दोषानुसन्धान, असूया करती हुई ‘वरद’ ‘सुरतनाथ’ सम्बोधनों का प्रयोग करती हैं। ‘त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च। देहादिकों को आत्मा और आत्मा को देहादिक समझकर अज्ञ आत्मा को खोजते हुए बाहर भटकता है। वस्तुतः अन्तर्मुखता ही परम वांछनीय है, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति हो जाने पर प्राणी सर्वत्र ही भगवत-स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर शान्ति प्राप्त कर सकता है। ‘अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव ह्यतत्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः। |