जब वृद्धि होती पाप की, कुल की बिगड़ती नारियाँ।
हे कृष्ण! फलती फूलती तब वर्णसंकर क्यारियाँ॥41॥
कुलघातकी को और कुल को ये गिराते पाप में।
होता न तर्पण पिण्ड, यों पड़ते पितर संताप में॥42॥
कुलघातकों के वर्णसंकर-कारकी इस पाप से।
सारे सनातन, जाति, कुल के धर्म मिटते आप से॥43॥
इस भाँति से कुल-धर्म जिनके कृष्ण होते भ्रष्ट हैं।
कहते सुना है वे सदा पाते नरक में कष्ट हैं॥44॥
हम राज्य सुख के लोभ से, हा! पाप यह निश्चय किये।
उद्यत हुए सम्बन्धियों के प्राण लेने के लिये॥45॥
यह ठीक हो यदि शस्त्र ले मारें मुझे कौरव सभी।
निःशस्त्र हो मैं छोड़ दूँ करना सभी प्रतिकार भी॥46॥
संजय ने कहा-
रणभूमि में इस भाँति कहकर पार्थ धनु-शर छोड़कर।
अति शोक से व्याकुल हुए बैठे वहीं मुख मोड़कर॥47।।
पहला अध्याय समाप्त हुआ॥1॥