इनको जनार्दन, मारकर होगा हमें संताप ही।
हैं आततायी मारने से पर लगेगा पाप ही॥36॥
माधव, उचित वध है न इनका, बन्धु हैं अपने सभी।
निज बन्धुओं को मारकर, क्या हम सुखी होंगे कभी॥37॥
मति मन्द उनकी लोभ से, दिखता न उनको आप है।
कुल-नाश से क्या दोष, प्रिय-जन-द्रोह से क्या पाप है॥38॥
कुल-नाश दोषों का, जनार्दन! जब हमें सब ज्ञान है।
फिर क्यों न ऐसे पाप से बचना भला भगवान है॥39॥
कुल नष्ट होते, भ्रष्ट होता कुल-सनातन-धर्म है।
जब धर्म जाता आ दबाता, पाप और अधर्म है॥40॥