हरिगीता अध्याय 18:66-70

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 18 पद 66-70

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तज धर्म सारे एक मेरे ही शरण को प्राप्त हो॥
मैं मुक्त पापों से करूँगा, तू न चिन्ता व्याप्त हो॥66॥

निन्दा करे मेरी, न सुनना चाहता, बिन भक्ति है॥
उसको न देना ज्ञान यह, जिसमें नहीं तप शक्ति है॥67॥

यह गुप्त ज्ञान महान भक्तों से कहेगा जो सही॥
मुझमें मिले पा भक्ति मेरी, असंशय नर वही॥68॥

उससे अधिक प्रिय कार्य-कर्ता विश्व में मेरा नहीं॥
उससे अधिक मुझको न प्यारा दूसरा होगा कहीं॥69॥

मेरी तुम्हारी धर्म-चर्चा जो पढ़ेगा ध्यान से॥
मैं मानता पूजा मुझे है, ज्ञानयज्ञ विधान से॥70॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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