जिन-जिन महान् विभूतियों से व्याप्त हो संसार में।
वे दिव्य आत्म-विभूतियाँ बतलाइये विस्तार में॥16॥
चिन्तन सदा करता हुआ कैसे तुम्हें पहिचान लूँ।
किन-किन पदार्थों में करूँ चिन्तन तुम्हारा जान लूँ॥17॥
भगवन्! कहो निज योग और विभूतियाँ विस्तार से।
भरता नहीं मन आपकी वाणी सुधामय धार से॥18॥
श्रीभगवान् बोले-
कौन्तेय! दिव्य विभूतिआँ मेरी अनन्त अशेष है।
अब मैं बताऊँगा तुझे जो जो विभूति विशेष है॥19॥
मैं सर्व जीवों के हृदय में अन्तरात्मा पार्थ! हूँ।
सब प्राणियों का आदि एवं मध्य अन्त यथार्थ हूँ॥20॥