श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
बारहवाँ अध्याय
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित: ॥18॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत:स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ॥19॥
शत्रु-मित्र और मान-अपमान में एक समान, शीत-उष्ण तथा सुख-दुःख में एक समान, आसक्ति से रहित, निन्दा और स्तुति को समान समझने वाला, मौनी, जिस किसी से भी सन्तुष्ट, अनिकेत और स्तिर मतिवाला जो भक्तिमान् है, वह मनुष्य मेरा प्यारा है।। 18-19।।
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ [1]
इत्यादिना शत्रुमित्रादिषु द्वेषादिरहितत्त्वम् उक्तम्। अत्र तेषु सन्निहितेषु अपि समचित्तत्त्वम् ततः अपि अतिरिक्तो विशेष उच्यते।
‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ इस श्लोक के द्वारा शत्रु-मित्रादि में द्वेष आदि का भाव बतलाया गया था। इस श्लोक में उन शत्रु-मित्रों में, जब उनका सान्निध्य प्राप्त हो, उस समय भी चित्त का सम रहना बतलाया जाता है, जो उससे भी भिन्न विशेष भाव है।
आत्मनि स्थिरमतित्वेन निकेतनादिषु असक्त इति अनिकेतः, तत एव मानापमानादिषु अपि समः, य एवम्भूतो भक्तिमान् स मे प्रियः।।18-19।।
आत्मा में स्थिर बुद्धि होने के कारण जो गृह आदि में अनासक्त हो गया है, अतः अनिकेत है। तथा इसी के कारण जो मानापमान आदि में भी सम हो गया है। जो इस प्रकार का भक्तिमान् पुरुष है, वह मेरा प्रिय है।।18-19।।
अस्माद् आत्मनिष्ठात् मद्भक्तियोगनिष्ठस्य श्रैष्ठ्यं प्रतिपादयन् यथोपक्रमम् उपसंहरति-
उपर्युक्त आत्मनिष्ठाशील पुरुष की अपेक्षा भगवद्भक्तियोगनिष्ठ पुरुष की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए भगवान् आरम्भ किये हुए प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं-
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