श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
महामनस एव गोपनीय गोपनकुशला इति तेषाम् एव गुह्यम् इदम्। उत्तमम् पवित्रं मत्प्राप्तिविरोध्यशेषकल्मषापहं प्रत्यक्षावगमम्, अवगम्यते इति अवगमो विषयः प्रत्यक्षभूतः अवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्, भक्तिरूपेण उपासनेन उपास्यमानः अहं तदानीम् एव उपासितुः प्रत्यक्षताम् उपागतो भवामि इत्यर्थः।
महामना पुरुष ही गुप्त रखने योग्य भावों को गुप्त रखने में कुशल होते हैं इसलिये भी यह गुह्यविद्या उन्हीं की है। यह ज्ञान परम पवित्र-मेरी प्राप्ति के विरोधी समस्त पापों का नाशक और ज्ञेयवस्तु को प्रत्यक्ष करा देने वाला है। जो जानने में आ जाय, उसे ‘अवगम’ कहते हैं, अतः ‘अवगम’ नाम विषय का है। जिस ज्ञान का विषय प्रत्यक्ष हो, वह ‘प्रत्यक्षावगम’ कहलाता है। अभिप्राय यह कि भक्तिरूपा उपासना के द्वारा उपासित होने पर मैं उसी समय उपासक के प्रत्यक्ष हो जाता हूँ।
अथापि धर्म्य धर्माद् अनपेतं धर्मत्वं हि निःश्रेयससाधनत्वम्; स्वरूपेण एव अत्यर्थप्रियत्वेन तदानीम् एव मद्दर्शनापादनतया च स्वयं निःश्रेयसरूपम् अपि निरतिशय निःश्रेययरूपात्यन्तिकमत्प्राप्ति साधनम् इत्यर्थः। अत एव सुसुखं कर्तु सुसुखोपादानम्, अत्यर्थप्रियत्वेन उपादेयम्; अव्ययम् अक्षयं मत्प्राप्तिं साधयित्वा अपि स्वयं न क्षीयते। एवंरूपम् उपासनं कुर्वतो मत्प्रदाने कृते अपि न किञ्चित् कृतं मया अस्य इति मे प्रतिभाति इत्यर्थः।। 2।।
इसके अतिरिक्त, यह ज्ञान धर्ममय है- धर्म से युक्त है। अभिप्राय यह कि परम कल्याण के साधन को ही धर्म कहते हैं। सो यह स्वरूप से ही मेरा अत्यन्त प्रिय होने के कारण तत्काल मेरा दर्शन प्राप्त करा देता है। अतः स्वयं भी परम कल्याणरूप है, और निरतिशय परम कल्याणरूप मेरी आत्यन्ति की प्राप्ति का साधन भी है। इसीलिये यह करने में सुसुख है- इसको सुगमता से प्राप्त किया जा सकता है। अतः इसे अत्यन्त प्रिय रूप से ग्रहण करना चाहिये। यह ज्ञान अव्यय क्षयरहित है- मेरी प्राप्ति को सिद्ध करके भी स्वयं नष्ट नहीं होता। अभिप्राय यह है कि ऐसी उपासना करने वाले को अपना स्वरूप प्रदान कर दने पर भी, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने इसके लिये कुछ भी नहीं किया।। 2।।
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