श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 229

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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पंचम अध्याय

यत् साङ्ख्यैः ज्ञाननिष्ठैः सन्न्यासिभिः प्राप्यते स्थानं मोक्षाख्यं तद् योगैः अपि।

ज्ञानप्राप्त्युपायत्वेन ईश्वरे समर्प्य कर्माणि आत्मनः फलम् अनभिसन्धाय अनुतिष्ठन्ति ये ते योगिनः तैः अपि परमार्थज्ञानसन्न्यासप्राप्तिद्वारेण गम्यते इति अभिप्रायः।

एत एकं साङ्ख्यं योगं च यः पश्यति फलैकत्वात् स सम्यक् पश्यति इत्यर्थः।।5।।

एवं तर्हि योगात् सन्न्यास एव विशिष्यते, कथं तर्हि इदम् उक्तम् ‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते’ इति।

श्रृणु तत्र कारणम्। त्वया पृष्टं केवलं कर्मसन्न्यासं कर्मयोगं च अभिप्रेत्य तयोः अन्यतरः कः श्रेयान्। तदनुरूपं प्रतिवचनं मया उक्तं कर्मसन्न्यासात् कर्मयोग विशिष्यते इति ज्ञानम् अनपेक्ष्य।

सांख्य योगियों द्वारा अर्थात् ज्ञान निष्ठायुक्त संन्यासियों द्वारा जो मोक्ष नामक स्थान प्राप्त किया जाता है वही कर्मयोगियों द्वारा भी (प्राप्त किया जाता है)।

जो पुरुष अपने लिए (कर्मों का) फल न चाहकर सब कर्म ईश्वर में अर्पण करके और उसे ज्ञान प्राप्ति का उपाय मानकर उनका अनुष्ठान करते हैं वे योगी हैं, उनको भी परमार्थ- ज्ञानरूप संन्यास प्राप्ति के द्वारा (वही मोक्षरूप फल) मिलता है। यह अभिप्राय है।

इसलिए फल में एकता होने के कारण जो सांख्य और योग को एक देखता है वही यथार्थ देखता है।।5।।

पू. यदि ऐसा है तब तो कर्मयोग से कर्मसंन्यास ही श्रेष्ठ है, फिर यह कैसे कहा कि ‘उन दोनों में कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है?’

उ.- उसमें जो कारण है सो सुनो, तुमने केवल कर्मसंन्यास और केवल कर्मयोग के अभिप्राय से पूछा था कि उन दोनों में कौन सा एक कल्याण कारक है? उसी के अनुरूप मैंने यह उत्तर दिया कि ज्ञान रहित कर्म संन्यास की अपेक्षा तो कर्मयोग ही श्रेष्ठ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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