श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायज्ञानापेक्षः तु सन्न्यासः साङ्ख्यम् इति मया अभिप्रेतः। परमार्थयोगः च स एव। यः तु कर्मयोगो वैदिकः स तादर्थ्याद् योगः सन्न्यास इति च उपचर्यते। कथं तादर्थ्यम्, इति उच्यते- क्योंकि ज्ञान सहित संन्यास को तो मैं सांख्य मानता हूँ और वही परमार्थयोग भी है। जो वैदिक (निष्काम) कर्मयोग है वह तो उसी ज्ञानयोग का साधन होने के कारण गौणरूप से योग और संन्यास कहा जाने लगा है। वह उसी का साधन कैसे है? सो कहते हैं- सन्न्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत: । सन्न्यासः तु परमार्थिको दुःखम् आप्तुं प्राप्तुम् अयोगतो योगेन विना। योगयुक्तो वैदिकेन कर्मयोगेन ईश्वरसमर्पित रूपेण फलनिरपेक्षेण युक्तो मुनिः मननाद् ईश्वर स्वरूपस्य मुनिः ब्रह्म परमात्मज्ञानलक्षणत्वात् प्रकृतः सन्न्यासो ब्रह्म उच्यते ‘न्यास ति ब्रह्म ब्रह्म हि परः’ (ना. उ. 2।78) इति श्रुतेः। ब्रह्म परमार्थसन्न्यासं परमात्मज्ञाननिष्ठा लक्षणं न चिरेण क्षिप्रम् एव अधिगच्छति प्राप्नोति अतो मया उक्तम् ‘कर्मयोगो विशिष्यते’ इति।।6।। बिना कर्मयोग के पारमार्थिक संन्यास प्राप्त होना कठिन है- दुष्कर है। तथा फल न चाहकर ईश्वर- समर्पण के भाव से किए हुए वैदिक कर्मयोग से युक्त हुआ, ईश्वर के स्वरूप का मनन करने वाला मुनि, ब्रह्म को अर्थात् परमात्मज्ञान निष्ठा रूप पारमार्थिक संन्यास को, शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, इसलिए मैंने कहा कि ‘कर्मयोग श्रेष्ठ है।’ परमात्मज्ञान का सूचक होने से प्रकरण में वर्णित संन्यास ही ब्रह्म नाम से कहा गया है, तथा ‘संन्यास ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही पर है’ इस श्रुति से भी यही बात सिद्ध होती है।।6।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज