श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायअतीतान्तराध्यायन्ते ध्यानयोगस्य सम्यग्दर्शनं प्रति अंतरंगस्य सूत्रभूताः श्लोकाः ‘स्पर्शानन्कृत्वा बहिः’ इत्यादय उपदिष्टाः तेषां वृत्तिस्थानीयः अयं षष्ठः अध्याय आरभ्यते।' तत्र ध्यानयोगस्य बहिरंग कर्म इति यावद् ध्यानयोगारोहणासमर्थः तावद् गृहस्थेन अधिकृतेन कर्तव्यं कर्म इति अतः तत् स्तौति। ननु किमर्थं ध्यानयोगारोहणसीमाकरणं यावता अनुष्ठेयम् एव विहितं कर्म यावज्जीवम्। न, ‘आरुरुक्षोः मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ इति विशेषणाद् आरूढस्य च शमेन एव सम्बन्धकरणात्। यथार्थ ज्ञान के लिए जो अंतरंग साधन है उस ध्यानयोग के सूत्ररूप जिन ‘स्पर्शान्कृत्वा बहिः’ इत्यादि श्लोकों का पूर्वाध्याय के अंत में उपदेश किया है, उन श्लोकों का व्याख्या रूप यह छठा अध्याय आरम्भ किया जाता है। परंतु ध्यानयोग का बहिरंग साधन कर्म है, इसलिए जबतक ध्यानयोग पर आरूढ होने में समर्थ न हो, तब तक अधिकारी गृहस्थ को कर्म करना चाहिए, अतः उस (कर्म)- की स्तुति करते हैं। पू.- ध्यान योग पर आरूढ होने तक की सीमा क्यों बाँधी गयी? जब तक जीवे तब तक विहित कर्मों का अनुष्ठान तो सबको करते ही रहना चाहिए। उ.- यह ठीक नहीं; क्योंकि ‘योग पर आरूढ़ होने की इच्छावाले मुनि के लिए कर्म कर्तव्य कहे गये हैं’ ऐसा कहा है और योगारूढ योगी का केवल उपशम से ही संबंध बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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