श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायआरुरुक्षोः आरूढस्य च शमः कर्म च उभयं कर्तव्यत्वेन अभिप्रेतं चेत् स्यात् तदा आरुरुक्षोः आरूढस्य च इति शमकर्मविषयभेदेन विशेषणं विभागकरणं च अनर्थकं स्यात्। तत्र आश्रमिणां कश्चिद् योगम् आरुरुक्षुः। भवति आरूढः च कश्चिद् अन्ये न आरुरुक्षवो न च आरूढाः तान् अपेक्ष्य आरुरुक्षोः आरूढस्य च इति विशेषणं विभागकरणं च उपपद्यते एव इति चेत्। न, ‘तस्यैव’ इति वचनात्। पुनः योग ग्रहणात् च ‘योगारूढस्य’ इति य आसीत् पूर्वं योगम् आरुरुक्षुः तस्य एव आरूढस्य शम एव कर्तव्यं कारणं योगफलं प्रति उच्यते इति। अतो न यावज्जीवं कर्तव्यत्वप्राप्तिः कस्याचिद् अपि कर्मणः।' यदि आरुरुक्षु और आरूढ दोनों ही के लिए शम और कर्म दोनों ही कर्तव्यरूप से माने गये हों तो आरुरुक्षु और आरूढ के शम और कर्म अलग-अलग विषय बतलाकर विशेषण देना और विभाग करना व्यर्थ होगा। पू.- उन आश्रमवालों में कोई योगारूढ होने की उच्छावाला होता है और कोई आरूढ होता है, परंतु कुछ दूसरे न तो आरूढ होते हैं औ न आरूरुक्षु ही होते हैं। उनकी अपेक्षा से ‘आरुरुक्षु’ और ‘आरूढ’ यह विशेषण देना और (उन दोनों प्रकार के योगियों को साधारण श्रेणी के लोगों से पृथक करके) उनका विभाग करना, ये दोनों बातें ही बन सकती हैं। उ.- यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि ‘तस्यैव’ इसपद का प्रयोग किया गया है। एवं ‘योगारूढस्य’ इस विशेषण में योग शब्द भी ग्रहण किया गया है। अर्थात् जो पहले योग का आरुरुक्षु था वही जब योग पर आरूढ हो गया तो उसी योगारूढ का योगफल की प्राप्ति के लिए शम ही कारण यानी कर्तव्य बताया गया है। इसलिए किसी भी कर्म के लिए जीवन पर्यन्त कर्तव्यता की प्राप्ति नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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