श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्याययोगविभ्रष्टवचनात् च। गृहस्थस्य चेत् कर्मिणो योगो विहितः षष्ठे अध्याये स योगविभ्रष्टः अपि कर्मगतिं कर्मफलं प्राप्नोति इति तस्य नाशाशंका अनुपपन्ना स्यात्। अवश्यं हि कृतं कर्म काम्यं नित्यं वा मोक्षस्य नित्यत्वाद् अनारभ्यत्वे स्वं फलम् आरभते एव। नित्यस्य च कर्मणो वेदप्रमाणावबुद्धत्वात् फलेन भवितव्यम् इति अवोचाम अन्यथा वेदस्य अनर्थक्यप्रसंगाद् इति। न च कर्मणि सति उभयविभ्रष्टवचनम् अर्थवत् कर्मणो विभ्रंशकारणानुपप्तेः। कर्म कृतम् ईश्वरे संन्यस्य इति अतः कर्तरि कर्म फलं न आरभते इति चेत्। न, ईश्वरे संन्यासस्य अधिकतरफल हेतुत्वोपपत्तेः। तथा योगभ्रष्टविषयक वर्णन से भी यही बात सिद्ध होती है। अभिप्राय यह कि यदि कर्म करने वाले गृहस्थ के लिए भी छठे अध्याय में कहा हुआ योग विहित हो, तो वह योग से भ्रष्ट हुआ भी कर्मों की गति को अर्थात् कर्मों के फल को तो प्राप्त होता ही है, इसलिए उसके नाश की आशंका युक्तियुक्त नहीं रह जाती। क्योंकि नित्य होने के कारण मोक्ष तो कर्मों से प्राप्त हो ही नहीं सकता। इसलिए किए हुए काम्य या नित्य कर्म अपने फल का आरम्भ अवश्य ही करेंगे। नित्यकर्म भी वेद प्रमाण द्वारा विज्ञान होने के कारण अवश्यक ही फल देने वाले होते हैं, नही तो वेद को निरर्थक मानने का प्रसंग आ जाता है, यह पहले कह चुके हैं। कर्मों के नाशक किसी हेतु की कोई सम्भावना न होने के कारण कर्मों के रहते हुए (गृहस्थ को) उभयभ्रष्ट कहना युक्तियुक्त नहीं हो सकता। पू.- यदि ऐसा मानें कि ‘वे कर्म ईश्वर में अर्पण करके’ किए गये हैं, इसलिए वे कर्ता के लिए फल का आरम्भ नहीं करेंगे। उ.- यह ठीक नहीं; क्योंकि ईश्वर में अर्पण किये हुए कर्मों का तो और भी अधिक फल देने वाला होना ही युक्तिसंगत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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