श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 214

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

कथम्, न अयं साधारणः अपि लोकः अस्ति तथा न परो लोको न सुखम्, तत्र अपि संशयोपपत्तेः संशयात्मनः संशयचित्तस्य। तस्मात् संशयो न कर्तव्यः।।40।।

अधिक पापी कैसे है? (सो कहते हैं) संशयात्मा को अर्थात् जिसके चित्त में संशय है उस पुरुष को न तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है, न परलोक मिलता है और न सुख ही मिलता है, क्योंकि वहाँ भी संशय होना संभव है, इसलिए संशय नहीं करना चाहिए।।40।। कस्मात्- कैसे?

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥41॥

योगसन्न्यस्तकर्माणं परमार्थदर्शनलक्षणेन योगेन सन्न्यस्तानि कर्माणि येन परमार्थदर्शिना धर्माधर्माख्यानि तं योगसन्न्यस्तकर्माणम्।

कथं योगसन्न्यस्तकर्मा इति आह-

ज्ञानेन आत्मेश्वरैकत्वदर्शनलक्षणेन सञ्छिन्नः संशयो यस्य स ज्ञानसञ्छिन्नसंशयः।

य एवं योगसन्न्यस्तकर्मा तम् आत्मवन्तम् अप्रमत्तं गुणचेष्टारूपेण दृष्टानि कर्माणि न निबन्धन्ति अनिष्टादिरूपं फलं न आरभन्ते हे धनञ्जय।।41।।

जिस परमार्थदर्शी पुरुष ने परमार्थज्ञानरूप योग के द्वारा पुण्य पापरूप संपूर्ण कर्मों का त्याग कर दिया हो, वह योग संन्यस्त कर्मा है। (उसको कर्म नहीं बाँधते।)

वह योगसंन्यस्तकर्मा कैसे है? सो कहते हैं- आत्मा और ईश्वर की एकता दर्शन रूप ज्ञान द्वारा जिसका संशय अच्छी प्रकार नष्ट हो चुका है, वह ‘ज्ञानसंछिन्नसंशय’ कहलाता है। (इसीलिए वह योसंन्यस्तकर्मा है।)

जो इस प्रकार योगसंन्यस्तकर्मा है, उस आत्मवान् यानी आत्मबल से युक्त प्रमादरहित पुरुष को हे धनंजय! (गुण ही गुणों में बर्तते हैं इस प्रकार) गुणों की चेष्टामात्र के रूप में समझे हुए कर्म नहीं बाँधते, अर्थात् इष्ट, अनिष्ट और मिश्र- इन तीन प्रकार के फलों का भोग नहीं करा सकते।।41।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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