श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 213

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

किं पुनः ज्ञानलाभात् स्याद् इति उच्यते-'

ज्ञानं लब्ध्वा परां मोक्षाख्यां शान्तिम् उपरतिम् अचिरेण क्षिप्रम् एव अधिगच्छति।

सम्यग्दर्शनात् क्षिप्रं मोक्षो भवति इति सर्वशास्त्रन्यायप्रसिद्धः सुनिश्चितः अर्थः।।39।। ज्ञानप्राप्ति से क्या होगा? सो (उत्तरार्ध में) कहते हैं-

ज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य मोक्ष रूप परम शान्ति को यानी उपरामता को बहुत शीघ्र तत्काल ही प्राप्त हो जाता है।

यथार्थ ज्ञान से तुरंत ही मोक्ष हो जाता है; यह सब शास्त्रों और युक्तियों से सिद्ध सुनिश्चित बात है।।39।।

अत्र संशयो न कर्तव्यः पापिष्ठो हि संशयः, कथम्, उच्यते-

इस विषय में संशय नहीं करना चाहिए, क्योंकि संशय बड़ा पापी है। कैसे? सो कहते हैं-

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ॥40॥

अज्ञः च अनात्मज्ञः अश्रद्दधानः च संशयात्मा च विनश्यति।

अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि न तथा यथा संशयात्मा, संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम्।

जो अज्ञ यानी आत्मज्ञान से रहति है, जो अश्रद्धालु है और संशयात्मा है- ये तीनों नष्ट हो जाते हैं।

यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं; परंतु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है, वैसे नहीं, क्योंकि इन सबमें संशयात्मा अधिक पापी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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