श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायकिं पुनः ज्ञानलाभात् स्याद् इति उच्यते-' ज्ञानं लब्ध्वा परां मोक्षाख्यां शान्तिम् उपरतिम् अचिरेण क्षिप्रम् एव अधिगच्छति। सम्यग्दर्शनात् क्षिप्रं मोक्षो भवति इति सर्वशास्त्रन्यायप्रसिद्धः सुनिश्चितः अर्थः।।39।। ज्ञानप्राप्ति से क्या होगा? सो (उत्तरार्ध में) कहते हैं- ज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य मोक्ष रूप परम शान्ति को यानी उपरामता को बहुत शीघ्र तत्काल ही प्राप्त हो जाता है। यथार्थ ज्ञान से तुरंत ही मोक्ष हो जाता है; यह सब शास्त्रों और युक्तियों से सिद्ध सुनिश्चित बात है।।39।। अत्र संशयो न कर्तव्यः पापिष्ठो हि संशयः, कथम्, उच्यते- इस विषय में संशय नहीं करना चाहिए, क्योंकि संशय बड़ा पापी है। कैसे? सो कहते हैं- अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । अज्ञः च अनात्मज्ञः अश्रद्दधानः च संशयात्मा च विनश्यति। अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि न तथा यथा संशयात्मा, संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम्। जो अज्ञ यानी आत्मज्ञान से रहति है, जो अश्रद्धालु है और संशयात्मा है- ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं; परंतु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है, वैसे नहीं, क्योंकि इन सबमें संशयात्मा अधिक पापी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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