श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायन च विपरीतज्ञानाद् अशुभाद् मोक्षणं स्यात् ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ इति च उक्तम्। तस्मात् कर्माकर्मणी विपर्ययेण गृहीते प्राणिभिः द्विपर्ययग्रहणनिवृत्यर्थं भगवतो वचनम् ‘कर्माणि अकर्म यः’ इत्यादि। न च अत्र कर्माधिकरणम् अकर्म अस्ति कुण्डे बदराणि इव न अपि अकर्माधिकरणं कर्म अस्ति कर्माभावत्वाद् अकर्मणः। अतो विपरीतगृहीते एव कर्माकर्मणी लौकिकेः यथा मृगतृष्णिकायाम् उदकं शुक्तिकायां वा रजतम्। ननु कर्म कर्म एव सर्वेषां न क्वचिद् व्यभिचरति। तद् न, नौस्थस्य नावि गच्छन्त्यां तटस्थेषु अगतिषु नगेषु प्रतिकूलगतिदर्शनाद् दूरेषु चक्षुषा असन्निकृष्टेषु गच्छत्सु गत्यभावदर्शनात्। तथा ‘जिसको जानकर अशुभ से मुक्त हो जाएगा।’ यह भी कहा है सो विपरीत ज्ञान द्वारा (जन्म मरण रूप) अशुभ से मुक्ति नहीं हो सकती। सुतरां प्राणियों ने जो कर्म और अकर्म को विपरीत रूप से समझ रखा है, उस विपरीत ज्ञान को हटाने के लिए ही भगवान् के ‘कर्मण्यकर्म यः’ इत्यादि वचन हैं। यहाँ ‘कुण्डे में बेरों की तरह’ कर्म का आधार अकर्म नहीं है और उसी तरह अकर्म का आधार कर्म भी नहीं है; क्योंकिं कर्म के अभाव का नाम अकर्म है। इसलिए (यही सिद्ध हुआ है कि) मृगतृष्णा में जल की भाँति एवं सीप में चाँदी की तरह लोगों ने कर्म और अकर्म को विपरीत मान रखा है। पू.- कर्म को सब कर्म ही मानते हैं, इसमें कभी फेरफार नहीं होता। उ.- यह बात नहीं, क्योंकि नाव चलते समय नौका में बैठे हुए पुरुष को तट के अचल वृक्षों में प्रतिकूल गति दीखती है अर्थात् वे वृक्ष उलटे चलते हुए दीखते हैं और जो (नक्षत्रादि) पदार्थ नेत्रों के पास नही होते, बहुत दूर होते हैं, उन चलते हुए पदार्थों में भी गति का अभाव दीख पड़ता है अर्थात् वे अचल दीखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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