श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायकर्मणि कर्म क्रियते इति व्यापारमात्रं तस्मिन् कर्मणि अकर्म कर्माभावं यः पश्येद् अकर्मणि च कर्माभावं यः पश्येद् अकर्मणि च कर्माभावे कर्तृतन्त्रत्वात् प्रवृत्तितनिवृत्त्योः वस्तु अप्राप्य एव हि सर्व एव क्रियाकारकादिव्यवहारः अविद्याभूमौ एव कर्म यः पश्येत् पश्यति। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तो योगी कृत्स्नकर्मकृत् समस्तकर्मकृत् च स इति स्तूयते कर्माकर्मणोः इतरेदरदर्शी। ननु किम् इदं विरुद्धम् उच्यते ‘कर्मणि अकर्म यः पश्येद् इति अकर्मणि च कर्म इति।’ न हि कर्म अकर्म स्याद् अकर्म वा कर्म तत्र विरुद्धं कथं पश्येद् द्रष्टा। जो कुछ किया जाय उस चेष्टा मात्र का नाम कर्म है। उस कर्म में जो अकर्म देखता है, अर्थात् कर्म का अभाव देखता है तथा अकर्म में- शरीरादि की चेष्टा के अभाव में जो कर्म देखता है। अर्थात् कर्म का करना और न करना दोनों ही कर्ता के अधीन हैं। तथा आत्मतत्व की प्राप्ति से पूर्व अज्ञानवस्था में ही सब क्रिया कारक आरदि व्यवहार है, (इसीलिए कर्म का त्याग भी कर्म ही है*) इस प्रकार जो अकर्म में कर्म देखता है। पू-जो कर्म में अकर्मे देखता है और अकर्मे मे कर्मे देखता है, यह विरूद्ध बात किस भाव से कही जा रही है ? क्योकि कर्म तो अकर्म हो नही सकता और अकर्मे कर्म नही हो सकता, तब देखनेबाले बिरूद्ध कैसे देखे? ननु अकर्म एव परमार्थतः सत् कर्मवद् अवभासते मूढदृष्टेः लोकस्य तथा कर्म एव अकर्मवत् तत्र यथाभूतदर्शनार्थम् आह भगवान् ‘कर्मणि अकर्म यः पश्येत्’ इत्यादि। अतो न विरुद्धम्। बुद्धिमत्वाद्युपपत्तेः च। बोद्धव्यम् इति त यथा भूतदर्शनम् उच्यते। उ.- वास्तव में जो अकर्म है वही मूढमति लोगों को कर्म के सदृश भास रहा है और उसी तरह कर्म अकर्म के सदृश भास रहा है, उसमें यथार्थ तत्व देखने के लिए भगवान् ने ‘कर्मणि अकर्म यः पश्येत्’ इत्यादि वाक्य कहे हैं, इसलिए (उनका कहना) विरुद्ध नही है; क्योंकि बुद्धिमान् आदि विशेषण भी तभी सम्भव हो सकते हैं। इसके सिवा यथार्थ ज्ञान को ही जानने योग्य कहा जा सकता है (मिथ्या ज्ञान को नहीं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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