श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायएवम् ईश्वरेण वेदयज्ञपूर्वकं जगत् चक्रं वर्तितं न अनुवर्तयति इह लोके यः कर्मणि अधिकृतः सन् अघायुः अघं पापम् आयुः जीवनं यस्य सः अघायुः पापजीवन इति यावत्, इन्द्रियाराम इन्द्रियैः आराम आरामणम् आक्रीडा विषयेषु यस्य स इन्द्रियारामः, मोघं वृथा हे पार्थ स जीवति। तस्माद् अज्ञेन अधिकृतेन कर्तव्यम् एव कर्म इति प्रकरणार्थः। प्राग् आत्मज्ञाननिष्ठायोग्यताप्राप्तेः तादर्थ्येन कर्मयोगानुष्ठानम् अधिकृतेन अनात्मज्ञेन कर्तव्यम् एव इति एतत् ‘न कर्मणामनारम्भात्’ इत्यत आरभ्य ‘शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः’ इति एवम् अन्तेन प्रतिपाद्य- ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र’ इत्यादिना ‘मोघं पार्थ स जीवति’ इति एवम् अन्तेन अपि ग्रन्तेन प्रासंगिकम् अधिकृतस्य अनात्मविदः कर्मानुष्ठाने बहुकारणम् उक्तं तदकरणे च दोष- संकीर्तन कृतम्।।16।। इस लोक में जो मनुष्य कर्माधिकारी होकर इस प्रकार ईश्वर द्वारा वेद और यत्नपूर्वक चलाये हुए इस जगत चक्र के अनुसार (वेदाध्ययन यज्ञादि) कर्म नहीं करता, हे पार्थ! वह पापायु अर्थात् पापमय जीवन वाला और इन्द्रियारामी अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों में रमण करने वाला व्यर्थ ही जीता है- उस पापी का जीना व्यर्थ ही है। इसलिए इस प्रकरण का अर्थ यह हुआ कि अज्ञानी अधिकारी को कर्म अवश्य करना चाहिए। अनात्मज्ञ अधिकारी पुरुष को आत्मज्ञान की योग्यता प्राप्त होने के पहले ज्ञाननिष्ठा प्राप्ति के लिए कर्मयोग का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए, यह ‘न कर्मणामनारम्भात्’ यहाँ से लेकर ‘शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः’ इस श्लोक तक के वर्णन से प्रतिपादन करके- ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र’ से लेकर ‘मोघं पार्थ स जीवति’ तक के ग्रंथ से भी आत्मज्ञान से रहित कर्माधिकारी के लिए कर्मों के अनुष्ठान करने में बहुत से प्रसंगानुकूल कारण कहे गये तथा उन कर्मों के अनुष्ठान करने में बहुत से प्रसंगानुकूल कारण कहे गये तथा उन कर्मों के न करने में बेहुत से दोष भी बतलाये गये।।16।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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