श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायएवं स्थिते किम् एवं प्रवर्तितं चक्रं सर्वेण अनुवर्तनीयम् आहोस्वित् पूर्वोक्तकर्मयोगा नुष्ठानोपायप्राप्याम् अनात्मविदा ज्ञानयोगेन एव निष्ठाम् आत्मविद्भिः साङ्ख्यैः अनुष्ठेयाम् अप्राप्तेन एव इति एवम् अर्थम् अर्जुनस्य प्रश्नम् आशङ्क्य, स्वयम् एव वा शास्त्रार्थस्य विवेकप्रतिपत्यर्थम् ‘एतं वै तमात्मानं विदित्वा निवृत्तमिथ्याज्ञानाः सन्तो ब्राह्मणा मिथ्याज्ञानवद्भिरवश्यं कर्तव्येभ्यः पुत्रेषणादिभ्यो व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य शरीर स्थिति मात्र प्रयुक्तं चरन्ति, न तेषामात्मज्ञाननिष्ठाव्यतिरेकेणान्यत् कार्यमस्ति’[1] इति एवं श्रुत्यर्थम् इह गीताशास्त्रे प्रतिपिपादयिषितम् आविष्कुर्वन् आह भगवान्-' यदि ऐसा है तो क्या इस प्रकार चलाये हुए इस सृष्टि चक्र के अनुसार सभी को चलना चाहिए? अथवा पूर्वोक्त कर्मयोगानुष्ठानरूप उपाय से प्राप्त होने वाली और आत्मज्ञानी सांख्ययोगियों द्वारा सेवन किए जाने योग्य ज्ञानयोग से ही सिद्ध होने वाली निष्ठा को न प्राप्त हुए अनात्मज्ञ को ही इसके अनुसार बर्तना चाहिए? (या तो) इस प्रकार अर्जुन के प्रश्नन की आशंका करके (भगवान् बोले-) अथवा स्वयं ही भगवान् शास्त्र के अर्थ को भलीभाँति समझाने के लिए ‘यह जो प्रसिद्ध आत्मा है उसका जानकर जिनका मिथ्या ज्ञान निवृत्त हो चुका है, ऐसे जो महात्मा ब्राह्मणगण अज्ञानियों द्वारार अवश्य की जाने वाली पुत्रादि की इच्छाओं से रहित होकर केवल शरीर निर्वाह के लिए भिक्षा का आचरण करते हैं, उनका आत्मज्ञान निष्ठा से अतिरिक्त अन्य कुछ कर्तव्य नहीं रहता’ ऐसा श्रुति का तात्पर्य जो कि इस गीताशास्त्र में प्रतिपादन करना उनको इष्ट है, उस (श्रुति अर्थ) को प्रकट करते हुए बोले- यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (बृह. उ. 3।5।1)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज