स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन
भगवान ने आज्ञा दी कि योगमाया! अब तुम जाओ। भगवान ने जब यह जाना कि हमारे परम भक्त यादव कंस के द्वारा भाँति-भाँति से उत्पीड़ित हो रहे हैं और वे अब शीघ्र ही पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर स्वयं सबका दुःख नाश करेंगे तो अपनी शक्ति योगमाया को व्रज में जाने का आदेश दिया। इससे भी यह बात सिद्ध होती है कि श्रीकृष्ण के अवतीर्ण होने के प्रारम्भ में ही योगमायाशक्ति का कार्य आरम्भ हो गया। उसके बाद परम मधुर लीला में जहाँ-जहाँ, जैसा-जैसा प्रयोजन हुआ उसी-उसी प्रकार से योगमाया शक्ति का कार्य प्रकट होता गया। श्रीभगवान ने व्रजलीला में वात्सल्य-सख्य रसास्वादन के बाद जब परम प्रेमवती व्रजरमणियों के मधुर रसास्वादन का विचार किया, उसमें जब प्रवृत्त हुये तब योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास कर दिया-मुपाश्रितः अर्थात प्रकाश। भगवान ने अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को इशारा किया कि पूर्ण रूप से प्रकट होकर इस लीला में पूरा-पूरा, सारा-का-सारा जहाँ जो आवश्यक है उसको तुम ठीक करो। तो भगवान ने अपनी रासलीला में सब प्रकार अघटन-संघटन कराने के लिये अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया शक्ति को प्रकाश किया। यहाँ पर अब कई बातें मन में उदित हो जाती हैं। जो इस रहस्य में प्रवेश करते हैं उनके हृदय में भगवान नाना प्रकार की अर्थ की भावना उत्पन्न करते हैं। शास्त्रों में प्रधानरूप से दो प्रकार की शक्ति-माया और योगमाया का वर्णन है। यों तो अनेक भेद हैं।
‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायायासमावृतः’[1]
और
- दैवी ह्मेषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
- मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।[2]
इन दो गीता-वचनों में योगमाया और माया; इन दो मायाओं के नाम आते हैं और उन दोनों के कार्यों के परिचय में भी कुछ विभिन्नता दिखाई पड़ती है। योगमाया के परिचय में यह बात सामने आयी कि श्रीभगवान योगमाया से समावृत हो जाते हैं इसलिये उन्हें सब नहीं जान पाते। किन्तु माया का परिचय तो जानने में आता है। माया त्रिगुणमयी है और दुरत्यया है। योगमाया के लिये यह नहीं कहा कि यह गुणमयी है या दुरत्यया है। एकमात्र भगवान के श्रीचरणों में जो शरणागत हैं वे ही उस त्रिगुणमयी दुरत्या माया से उत्तीर्ण हो सकते हैं। भागवत में भी इस प्रकार के शब्द आते हैं।
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