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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान का संवाद है। भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! श्रीगोपांगनाएँ अपनी देह को मेरी सेवा का उपकरण ही मानती है। इनसे भोग-सुख मिलेगा यह नहीं मानती। अपने शरीर से हमें भोग-सुख मिलेगा, इसके लिये शरीर है ये यह नहीं मानती। अपने देह को भगवान की सेवा का उपकरण मानती हैं और इसीलिये देह से प्यार करती हैं। हम लोगों का जो देह से प्यार करना है यह दूसरा। हमारी देहासक्ति है। हम देह को सुख देने के लिये, शरीर के आराम के लिये ही सारे पदार्थों का सेवन करते हैं। हमारा कमाना, खाना इन दो ही चीजों के लिये होता है। शरीर को आराम मिले और नाम का नाम हो। इस मिथ्यानाम का ना हो और पाञ्चभौतिक मल-मूत्र से भरा हुआ यह शरीर-इसको आराम मिले। देहासक्ति को लेकर के हम देह से प्रेम करते हैं और गोपियों को जो देह से प्रेम है यह देह के लिये नहीं है यह भगवान के सुख के लिये है। गोपियों का जो वस्त्राभूषणादि सेवन है, ग्रहण है, देह को सुसज्जित करना है- यह भी अपने लिये, अपनी शोभा के लिये नहीं है। अपनी शोभा के लिये हो तो वह देहासक्ति है। वहाँ प्रेम की कहीं कल्पना भी नहीं है। यह तो वेश्याओं का काम है-अपने को सजाना। पतिव्रता भी नहीं सजाती पति को दिखाने के सिवाय। इसलिये भगवान ने कहा- यह जो श्रीगोपांगनाएँ हैं इनका देह को सज्जा करने का, सुशोभित करने का हेतु है केवल मेरा सुख, केवल मैं। इसलिये निगूढ़ प्रेमभाजन सबसे उत्तम सबसे श्रेष्ठ है। मेरा प्रेमपात्र तीनों लोकों में कोई नहीं है; गोपांगनाओं को छोड़कर। इसलिये मेरा सारा-का-सारा, जैसा जो कुछ मैं हूँ, यह गोपांगनाओं में उत्तर आया है। लोग मेरी महिमा गाते हैं, मेरी आँख से मेरी महिमा न जानकर अपनी-अपनी बुद्धि से महिमा का गान करते हैं पर भगवान का भगवान की दृष्टि में महिमा का पदार्थ क्या है? इसको नहीं जानते। इसी प्रकार सेवा करते हैं अपने मनोनुरूप और उनकी सेवा को भगवान कहते है कि मैं ग्रहण भी करता हूँ लेकिन मेरी सेवा वास्तव में क्या है इसको मैं ही जानता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदि पुराण
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