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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
अतएव वात्सल्य प्रेम की अपेक्षा भी मधुर प्रेम जो है यह सबसे श्रेष्ठ है। मधुर रस की सेवा इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इस रस में भक्त को अबाध रूप से सेवा प्राप्त होती है। अर्थात औरों में कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं बाधा वर्तमान है। धर्म की, नीति की, शील की, मर्यादा की, संकोच की बाधा परन्तु निर्बाधरूप से भगवान की सर्वविध सब प्रकार की सेवा का अधिकार मुधर में ही प्राप्त होता है। इस रस के समान किसी रस में सेवा नहीं होती। भगवान के साथ नाना प्रकार से व्यवहार विलास आदि इस रस के सिवाय अन्यत्र नहीं होता। बहुत-सा इसका वर्णन है इसको छोड़ देते हैं। देह में और दैहिक पदार्थों में अहंता, ममता भाव रखकर जो संसार में रहते हैं बहिर्मुखजीव उनकी कोई बात ही नहीं है। प्रेम से सेवा करने वालों की जब आलोचना करते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि किसी अनिर्वचनयी सौभाग्य से जब सबके मूलस्वरूप परब्रह्म में मैपन की धारणा हो जाती है तब ऐसे सुख-दुःख से अतीत होकर सच्चिदानन्दघन परब्रह्म में विलीन हो जाता है साधक। यह ब्रह्माद्वैत की बड़ी ऊँची अवस्था है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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