रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 67

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


वात्सल्य में सख्य भी है। वात्सल्य में दास्य भी है। माँ जितनी सेवा करती है बच्चे की उतना दास नहीं करता है। किसी भी दाई-बाई को रखो, टट्टी धोने का काम माँ जैसा कोई करता ही नहीं। बीमार है, दुर्गन्ध आ रही है ऐसे बच्चे को गले लगाये ऐसा माँ के समान कोई सेवक-सेविका होता ही नहीं है। माँ में दास्य रति है। माँ में अपनी सभी इन्द्रियों का दमन है; बच्चे के हित के लिये। माँ सोई है और बच्चा जाड़े में मूत्र में पड़ा है, दूसरा कपड़ा नहीं है तो माँ मूत्र में, गीले में आ जायेगी और बच्चे को सूखे में कर देगी। दमन-इन्द्रियों का दमन, मन का दमन। दास्य रति में सलाह देना, मित्रता वाली बात पूरी-की-पूरी है। वात्सल्य शासन भी करती है तो वात्सल्य में सख्य भी है, वात्सल्य में दास्य भी है, वात्सल्य में शान्त भी है पर यहाँ भी सर्वात्मनिवेदन नहीं है। वात्सल्य में सर्वात्मनिवेदन नहीं हैं क्योंकि वात्सल्य में भी कुछ छिपाव है, मर्यादा है, कुछ दुराव है, कुछ सीमा है, कुछ संकोच है, संभ्रम और ढंग का है-बच्चे के सामने माँ का व्यवहार और पति के सामने पत्नी का व्यवहार। माँ का बड़ा ऊँचा वात्सल्य होते हुए भी संकोच में, शील में अन्तर है। कहते हैं कि इसलिये जैसे हीन बुद्धि की सेवा करने का अधिकार सख्य को नहीं, दास्य को नहीं, शांत को नहीं इसी प्रकार सर्वात्मनिवेदन रूप से सेवा करने का अधिकार वात्सल्य में भी नहीं।

अतएव वात्सल्य प्रेम की अपेक्षा भी मधुर प्रेम जो है यह सबसे श्रेष्ठ है। मधुर रस की सेवा इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इस रस में भक्त को अबाध रूप से सेवा प्राप्त होती है। अर्थात औरों में कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं बाधा वर्तमान है। धर्म की, नीति की, शील की, मर्यादा की, संकोच की बाधा परन्तु निर्बाधरूप से भगवान की सर्वविध सब प्रकार की सेवा का अधिकार मुधर में ही प्राप्त होता है। इस रस के समान किसी रस में सेवा नहीं होती। भगवान के साथ नाना प्रकार से व्यवहार विलास आदि इस रस के सिवाय अन्यत्र नहीं होता। बहुत-सा इसका वर्णन है इसको छोड़ देते हैं।

देह में और दैहिक पदार्थों में अहंता, ममता भाव रखकर जो संसार में रहते हैं बहिर्मुखजीव उनकी कोई बात ही नहीं है। प्रेम से सेवा करने वालों की जब आलोचना करते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि किसी अनिर्वचनयी सौभाग्य से जब सबके मूलस्वरूप परब्रह्म में मैपन की धारणा हो जाती है तब ऐसे सुख-दुःख से अतीत होकर सच्चिदानन्दघन परब्रह्म में विलीन हो जाता है साधक। यह ब्रह्माद्वैत की बड़ी ऊँची अवस्था है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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