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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
तन्न: प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङ्घ्निमूलं भगवन! तुम सबके सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाले हो, हम सब तुम्हारे चरणों की सेवा करने की आशा से ही घर-कुटुम्बादि सब कुछ त्याग कर तुम्हारे चरणों की शरण में आयी हैं; अब तुम हम पर प्रसन्न होओ। हे पुरुषरत्न! तुम्हारी मधुर मुस्कान तथा तिरछी चितवन ने हमारे देह तथा मन को प्रेम-मिलन-लालसा की तीव्र अग्नि से संतप्त कर दिया है, अब तुम हम लोगों को दासी के रूप में स्वीकार कर सेवा का सौभाग्य प्रदान करो।।38।। वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री- प्रियतम! तुम्हारे मुखकमल को, जो घुँघराली अलकों के भीतर से झलक रहा है, जिसके कमनीय कपोलों पर कुण्डलों की छवि छा रही है, जिसके मधुर अधर अमृतमय हैं तथा जो हृदय को हर लेने वाली तिरछी चितवन तथा मधुर मुस्कान से समन्वित है, निरखकर तथा अभय दान देने वाली दोनों भुजाओं को एवं सौन्दर्य की एकमात्र मूर्ति श्रीलक्ष्मी जी के नित्य रतिप्रद वक्षःस्थल को निहारकर हम सब तुम्हारी सदा के लिये बिना मोल की दासी बन चुकी हैं।।39।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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